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राजपूताने के जैनवीर के सुपुर्द करने तथा उस सम्बन्ध का ताम्रपत्र अखेहजी नाथजी (भंडारी) के पास होने का उल्लेख है। पहिले अन्य विष्णुमंदिरों के समान यहाँ भी भोग लगता था और भोग तैयार होने के स्थान को 'रसोड़ा' कहते थे । अब तो इस मन्दिर में पहले की तरह भोग नहीं लगता और भोग के स्थान में भंडार की तरफ से होने वाले पूजा प्रक्षाल में फल और सूखे मेवे आदि के साथ कुछ मिठाई रखदी जाती है।
महाराणा साहव इस मन्दिर में द्वितीय द्वार से नहीं, किन्तु वाहरी परिक्रमा के पिछले भाग में बने हुये एक छोटे द्वार से प्रवेश करते हैं। क्योंकि दूसरे द्वार के ऊपर की छत में पाँच शरीर
और एक सिर वाली एक मूर्ति खुदी हुई है, जिसको लोग 'छत्रभंग' कहते हैं । इसी मूर्ति के कारण महाराणा साहब इसके नीचे होकर दूसरे द्वार से मन्दिर में प्रवेश नहीं करते।
मन्दिर का सारा काम पहले भंडारियों के अधिकार में था और इसकी सारी आमद उनकी इच्छानुसार खर्च की जाती थी परन्तु पीछे से राज्य ने मन्दिर की आय में से कुछ हिस्सा उनके लिये नियत कर वाक्री के रुपयों की व्यवस्था करने के लिये एक जैन कमेटी में बनादी है और देवस्थान के हाकिम का एक नायव मन्दिर के प्रवन्ध के लिये वहाँ रहता है।
मन्दिर में पूजन करने वाले यात्रियों के लिये नहाने धोने का अच्छा प्रवन्ध है.। पूजन करवं समय स्त्री-पुरुषों. के पहनने के
* इसके.सदस्य श्वेताम्बरी और दिगग्वरी दोनों होते हैं।-गोयलीय।