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मेवाड-परिचय अहो ! यह वही पूज्यस्थल है, जहाँ खड़े थे लाखों वीर । गौरव-रक्षा हेतु हुये थे, पर्वत सम दृढ़ मनुज शरीर ॥ ११ ॥ शत्रु-सैन्य-सागर की लहरें, आई इसे हटाने को । मुका न वह पर चूर हुआ, चिरजीवित द्वीप बनानेको ॥१२॥ इसी धूल में यहाँ नहाकर, होऊँगा मैं महा पवित्र । । खुदा रहेगा सदा हृदय पर, पावन वीर भूमि का चित्र ॥१३॥ शीश झुकाऊँगा मैं उसको, सायं प्रातः दोनों काल । कठिन काल आने पर उसका, ध्यान करूँगा मैं तत्काल॥१४॥ होकर यह स्वर्गीय चन्द्र-सम, सुखद किरण फैलाता है । नीच कुटिलता पृथिवी पर, प्रवल प्रताप बढ़ाता है ।। १५ ।। निज कर्तव्य पूर्ण करने का, यह हम को देता उपदेश । स्वार्थ-सिद्धि-हित आत्म-त्याग का देता ईश्वरीय संदेश ।।१६।। वीर देवियों की सुख-शैया, चिता हृदय में जलती है। . . सिंह-मूर्ति अति प्रवल काल की, दृष्टि संग ही चलती है ॥१०॥ युद्ध-नाद सुस्पष्ट यहाँ पर, अभी सुनाई देता है । मधुर गानका एक शब्द फिर, इन सब को ढक लेता है।॥१८॥ हे! दृढ़ साहसयुक्त वीरंगण! तुम्हें कोटिशःवार प्रणाम्। कव फिर भारतमें होंगे नर, तुमसे नीति-निपुण गुण-धाम।।१९।। "हम से कुटिल नीच पुरुषोंको, है सतकोटि बार धिकार।
रक्षा होगी वमी. हमारी जव, तुम फिर लोगे अंवतार Rail ::. :. : ekia -.. .. .. .
श्री गोविन्दसिंहजी पंचौली चित्तौड़गढ़ की कृपा से प्राप्त !