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मेवाड़ - परिचय
५.१:
में लगे हुये शिलालेख से स्पष्ट है कि काष्टासंघ के नदीतट गच्छ और विद्यागण के भट्टारक श्री सुरेन्द्रकीर्ति के समय में बघेरवाल जाति के गोवाल गोत्री संघवी (संघपति) आल्हा के पुत्र भोज के कुटुम्बियों ने यह मन्दिर बनवा कर प्रतिष्ठा महोत्सव किया ‡ । इस मन्दिर से आगे की देवकुलिका की दीवार में भी एक शिलालेख लगा हुआ है, जिस का आशय यह है कि वि० सं० १७५४ पौष वदि ५ को काष्ठासंघ के नदीतटगच्छ और विद्यागण के भट्टारक सुरेन्द्रकीर्ति के उपदेश से हूँबड़ जाति की वृद्ध शाखावाले विश्वेश्वर गोत्री साह आल्हा के वंशज सेठ भूपत के वंश वालों ने यह लघु प्रासाद बनवाया । इन चारों शिलालेखों से ज्ञात होता है कि ऋषभदेव के मन्दिर तथा कुलिकाओं का अधिकाँश काष्टांसंघ के भट्टारकों के उपदेश से उनके दिगम्बरी अनुयाइयों ने बनवाया था । शेष सब देवकुलिकाएँ किसने बनवाई, इस विषय का कोई लेख नहीं मिला । "
“ऋषभदेव की वर्तमान् मूर्ति बहुत प्राचीन होने से उसमें कई जगह खड़े पड़ गये थे, जिससे उनमें कुछ पदार्थ भर कर उनको ऐसा बना दिया है कि वे मालूम नहीं होते । यह प्रतिमा डूंगरपुर राज्य की प्राचीन राजधानी बड़ौदे ( वटपद्रक ) के जैन- मन्दिर से लाकर यहाँ पधराई गई है । बड़ौदे का पुराना मन्दिर गिर गया है और उसके पत्थर वहाँ वटवृक्ष के नीचे एक चबूतरे पर चुने हुये हैं। पभदेव की प्रतिमा बड़ी भव्य और तेजस्वी है, इसके साथ
+ यह शिलालेख प्राचीन जैन इतिहास के लिये बड़े काम का है, क्योंकि इसमें नदी तट गच्छ की उत्पत्ति तथा उक्त गच्छ के आचायौकी नम परम्परा दी हुई है ।