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मन मात्र एक प्रक्रिया है। वस्तुत: मन अस्तित्व नहीं रखता, केवल विचार ही विचार होते हैं, विचार इतनी तेजी से सरकते हैं कि तुम सोचते और अनुभव करते हो कि वहां कुछ निरंतर अस्तित्व रखता है। एक विचार आता है, दूसरा विचार आता है, फिर दूसरा और वे आते जाते हैं। उनके बीच का अंतराल इतना छोटा होता है कि तुम एक विचार और दूसरे विचार के बीच के अंतराल को नहीं देख सकते। दो विचारों के बीच के अंतराल को नहीं देख सकते। दो विचार जुड़ जाते हैं, वे एक सातत्य बन जाते हैं। उसी सातत्य के कारण तुम सोचते हो कि मन है।
विचार होते हैं, पर कोई मन नहीं होता, ऐसे जैसे कि इलेक्ट्रॉन्स हों लेकिन भौतिक वस्तु न हो। विचार मन का इलेक्ट्रॉन होता है। वह भीड़ की भांति होता है। एक अर्थ में अस्तित्व रखता है और दूसरे अर्थों में अस्तित्व नहीं रखता। केवल व्यक्ति अस्तित्व रखता है। लेकिन एक साथ बहुत सारे व्यक्ति अनुभूति देते हैं एक होने की। एक राष्ट्र अस्तित्व रखता है और अस्तित्व नहीं भी रखता है; केवल व्यक्ति होते हैं वहां। व्यक्ति इलेक्ट्रॉन होते हैं राष्ट्र के, समुदाय के, भीड़ के।
विचारों का अस्तित्व होता है, मन का अस्तित्व नहीं होता। मन तो मात्र एक प्रतीति है। और जब तुम ज्यादा गहरे झांकते हो मन में तो वह तिरोहित हो जाता है। फिर होते हैं विचार, लेकिन जब मन तिरोहित हो जाता है और एक-एक अकेले विचार अस्तित्व रखते हैं, तो बहुत सारी चीजें तुरंत सुलझ जाती हैं। पहली बात तो यह होती है कि तुम तुरंत जान जाते हो कि विचार बादलों की भांति होते हैं -वे आते हैं और चले जाते हैं और तुम होते हो आकाश। जब कोई मन नहीं बचता, तो तुरंत यह बोध उतर आता है कि तुम अब विचारों में उलझे हुए नहीं हो। विचार होते हैं वहां, तुममें से गुजर रहे होते हैं जैसे कि बादल गुजर रहे हों आकाश से, या कि हवा गुजर रही हो वृक्षों से, विचार तुम में से गुजर रहे होते हैं; और वे गुजर सकते हैं, क्योंकि तुम एक विशाल शून्यता हो। कोई अवरोध नहीं है, कोई बाधा नहीं है। उन्हें रोकने को कोई दीवार नहीं बनी हुई है।
तुम दीवारों से घिरी कोई घटना नहीं हो। तुम्हारा आकाश अपरिसीम रूप से खुला है; विचार आते और चले जाते हैं। और एक बार तुम्हें लगने लगे कि विचार आते हैं और चले जाते हैं तो तुम हो जाते हो द्रष्टा, साक्षी; मन नियंत्रण के भीतर होता है।
मन नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। पहली तो बात : क्योंकि वह होता ही नहीं, तो कैसे तुम उसे नियंत्रित कर सकते हो? दूसरी बात : कौन करेगा मन को नियंत्रित? मन के पार कोई नहीं रहता। और जब मैं कहता हूं कि कोई नहीं रहता, तो मेरा मतलब होता है कि मन के पार रहता है ना-कुछ-एक कुछ-नहीं-पन। कौन करेगा मन को नियंत्रित? यदि कोई कर रहा होता है मन को नियंत्रित, तो वह एक हिस्सा भर होगा, मन का एक अंश ही मन के दूसरे अंश को नियंत्रित कर रहा होगा। यही होता है अहंकार।