Book Title: Patanjali Yoga Sutra Part 02
Author(s): Osho
Publisher: Unknown

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Page 399
________________ मत सोचना अतीत के बारे में। अतीत तो खत्म हुआ और तुम उसे अनकिया नहीं कर सकते। लेकिन भविष्य के दुख से बचा जा सकता है, उससे बचना ही होता है। कैसे बचना होगा उससे? द्रष्टा और दृश्य के बीच का संबंध जो कि दुख बनाता है उसे तोड़ देना है। तुम्हें साक्षी होना होगा तुम्हारे गुणों का, स्वाभाविक गुणों का, मन की वृत्तियों का, मन की होशियारियो का, चालबाजियों का, मन के फंदों का, आदतों का, संस्कारों का, अतीत का, बदलती स्थितियों का, अपेक्षाओं का तुम्हें सजग रहना होगा इन सभी चीजों के प्रति। तुम्हें याद रखनी है केवल एक बात द्रष्टा दृश्य नहीं है। जो कुछ तुम देख सकते हो, वह तुम नहीं हो। यदि तुम देख सकते हो तुम्हारे आलस्य की आदत, तो तुम वह नहीं होते। यदि तुम देख सकते हो निरंतर कछ न कछ किए जाने की तुम्हारी आदत, तो तुम वह नहीं होते। यदि तुम देख सकते हो तम्हारी पिछली संस्कारबदधताएं तो तुम वे बद्धताएं नहीं होते। द्रष्टा नहीं होता दृश्य। तुम जागरूकता हो। और जागरूकता उस सब से परे होती है, जिसे कि वह देख सकती है। द्रष्टा पार होता है दृश्य के। तुम इंद्रियातीत चेतना हो। यह होता है विवेक, यह होती है जागरूकता। यही तो है जिसे बुद्ध उपलब्ध करते हैं और निरंतर इसी में रहते हैं। इसे निरंतर उपलब्ध करना तुम्हारे लिए संभव न होगा, लेकिन यदि कुछ पलों के लिए भी तुम द्रष्टा तक उठ सको और दृश्य के पार हो सको, तो अचानक ही दुख तिरोहित हो जाएगा। अचानक बादल न रहेंगे आकाश में और तुम पा सकते हो थोड़ी-सी झलक नीले आकाश की। –वह मुक्ति पा सकते हो जिसे वह देता है और पा सकते हो वह आनंद जो कि उसके द्वारा आता है। शुरू में, केवल कुछ क्षणों के लिए यह संभव होगा। लेकिन धीरे – धीरे, जैसे -जैसे तुम इसमें विकसित होते हो, तुम इसे अनुभव करने लगते हो, तुम इसकी आत्मा को ही आत्मसात करते हो, यह बात और और ज्यादा मौजूद होगी। एक दिन आएगा जब अचानक और कोई बादल नहीं बचा रहता, द्रष्टा जा चुका होता है कहीं पार। इसी तरह ही बचा जा सकता है भविष्य के दुख से। अतीत में तुमने दुख भोगा, भविष्य में कोई आवश्यकता नहीं दुख भोगने की। यदि तुम दुख भोगते हो, तो तुम होओगे जिम्मेदार। और यही है कुंजी, कुंजियों की कुंजी सदा याद रखना कि तुम सब से परे हो। यदि तुम देख सकते हो तुम्हारा शरीर, तो तुम शरीर नहीं होते। यदि तुम आंखें बंद करो और तुम देख सको तुम्हारे विचार तो तुम विचार नहीं रहते –क्योंकि द्रष्टा कैसे हो सकता है दृश्य? द्रष्टा तो सदा परे होता है, पार होता है। द्रष्टा है सर्वथा परे, संपूर्णतया एक अतिक्रमर्णा।

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