Book Title: Patanjali Yoga Sutra Part 02
Author(s): Osho
Publisher: Unknown

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Page 414
________________ यदि तुम उदास हो, तो मैं कहता हूं, 'उत्सव मनाओ, नाचो, गाओ।' तुम गंवाओगे क्या? ज्यादा से ज्यादा उदासी खो जाएगी और कुछ नहीं। लेकिन तुम सोचते हो, ऐसा असंभव है। और यह विचार ही कि ऐसा असंभव है, तुम्हें उसे आजमाने न देगा। और मैं कहता हूं, यह दुनिया की सबसेज्यादा आसान चीजों में से एक चीज है, क्योंकि ऊर्जा तटस्थ होती है। वही ऊर्जा बन जाती है उदासी; वही ऊर्जा बन जाती है क्रोध, वही ऊर्जा बन जाती है कामवासना, वही ऊर्जा बन जाती है करुणा; वही ऊर्जा बन जाती है ध्यान। ऊर्जा एक ही है। तुम्हारे पास बहुत तरह की ऊर्जाएं नहीं होती हैं। तुम्हारे पास ऊर्जा के बहुत सारे अलग-अलग खाने नहीं होते, जहां कि इस ऊर्जा पर लेबल लग जाए 'उदासी', और उस ऊर्जा पर लेबल लग जाए 'प्रसन्नता'। ऊर्जाएं खानों में बंटी नहीं होतीं, वे अलग नहीं होती। तुममें कोई बंधे –बंधाए कोष्ठ अस्तित्व नहीं रखते हैं, तुम तो बस एक हो। यही एक ऊर्जा उदासी बन जाती है, यही एक ऊर्जा क्रोध बन जाती है। यह तुम पर निर्भर करता है। तुम्हें रहस्य सीखना पड़ता है, यह कला कि कैसे ऊर्जाओं को रूपांतरित करना होता है। तुम तो केवल निर्देश देते हो और वही ऊर्जा गतिमान होने लगती है। और जब संभावना है क्रोध को आनंद में बदलने की, लोभ को करुणा में बदलने की, ईर्ष्या को प्रेम में बदलने की तो तुम नहीं जानते तुम क्या खो रहे हो। तुम नहीं जानते तुम क्या चूक रहे हो। तुम यहां इस विश्व में होने का सारा सार ही चूक रहे हो। आजमाओ इसे। चौथा प्रश्न : आपके प्रवचनों को सुनते हुए अब दो वर्ष हो चले हैं मेरी समझ में आता है कि आप अपने दिये हुए करीब-करीब प्रत्येक वक्तव्य का खंडन कर देते हैं क्या सचमुच कोई कुछ कर सकता है सिवाय ध्यान से देखने के और प्रतीक्षा करने के? हा, मैं खंडन करता हं प्रत्येक कथन का, प्रत्येक शब्द का जो मैं बोलता हूं। मेरे पास सिखाने को कोई दर्शन नहीं, बल्कि मेरे पास अस्तित्व ही है प्रत्यक्ष दिखा देने को। यहां तुम्हें कोई सिद्धांत नहीं सिखाया जा रहा है। यहां तुम्हें कोई धर्म -सिद्धांत नहीं दिया जा रहा है। मैं कोई दार्शनिक नहीं हूं। मैं उतना ही विरोधात्मक हूं जितना कि स्वयं अस्तित्व। मेरे पास कोई चुनाव नहीं है। अस्तित्व विरोधात्मक है : उसमें होते हैं रात और दिन, गर्मी और सर्दी, शैतान और ईश्वर-उसमें होता है सब 'कुछ। और मैं अब हूं ही नहीं। ज्यादा से ज्यादा, मैं एक झरोखा हूं अस्तित्व का। मुझे होना ही पड़ता ते पर रोधात्मक। और जो मैं कहता हूं यदि तुम उसे सोचते ही जाते हो, तो तुम हर दिन और- और

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