Book Title: Patanjali Yoga Sutra Part 02
Author(s): Osho
Publisher: Unknown

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Page 415
________________ उलझन में पड़ोगे। जो मैं कहता हूं उस पर ज्यादा ध्यान मत देना। जो मैं हूं तुम अपना ध्यान उस पर दो। मेरे कथन विरोधाभासी हो सकते हैं -यदि तम्हें विरोधाभास नहीं दिखाई पड़ते तो वह इसी कारण कि तुम मुझे प्रेम करते हो। वे विरोधाभासी हैं, लेकिन मैं नहीं हूं विरोधाभासी। दोनों अस्तित्व रखते हैं मुझमें, लेकिन मुझमें कोई असंगति नहीं है। इसी ओर ध्यान देना है तुम्हें, इसे ही समझना है गले। एक गहरी सुसंगति अस्तित्व रखती है मुझ में, मैं किसी भी द्वंद्व में नहीं हूं। यदि कोई वंद्व होता तो मैं एकदम पागल हो गया होता। इतने सारे विरोधाभासों के साथ कैसे कोई व्यक्ति जीए चला जा सकता है ? कैसे कोई व्यक्ति जी सकता है, सांस ले सकता है? वे मुझमें कोई विसंगति निर्मित नहीं करते। हर चीज का ताल-मेल बैठा हुआ है। बल्कि इसके विपरीत, वे मदद देते हैं सम -स्वरता को, वे उसे ज्यादा समृद्ध बना देते हैं। यदि मैं एक ही स्वर का व्यक्ति होता, बस दोहरा रहा होता उसी स्वर को बार-बार, तो मैं अविरोधी होता। यदि तुम्हें चाहिए अविरोधी व्यक्ति, एकदम एक-स्वरीय व्यक्ति, तो जाओ जे कृष्णमूर्ति के पास। वे बिलकुल अविरोधी हैं। चालीस वर्षों से उन्होंने एक बार भी स्वयं का खंडन नहीं किया। लेकिन मैं समझता हं इसीलिए बड़ी समृद्धि खो गयी है, बहुत –सी संपन्नता जो जीवन में होती है, खो गयी है। वे तर्कयुक्त हैं, मैं अतळ हूं। वे हैं बाग-बगीचे की भांति हर चीज. सुसंगत है, क्यारियों में उगायी हुई है, तर्कयुक्त हैं, बौद्धिक हैं, मैं हूं स्वच्छंद वन की भांति कोई चीज उगायी नहीं गयी है। यदि तुम तर्क की फिक्र बहुत ज्यादा करते हो, तो मुझसे ज्यादा कृष्णमूर्ति को चुनना बेहतर है। लेकिन यदि स्वच्छंद के लिए, बेतरतीब वन के लिए तुम्हारे पास कोई संवेदना है, केवल तभी तुम्हारा ताल-मेल बैठ पाएगा मेरे साथ। मैं तुम्हें खोल देता हूं उस सबके प्रति जो कि जीवन के पास है। मैं नहीं चुनता कि क्या कहना है, मैं नहीं चुनता कि क्या -क्या सिखाना है--मेरा कोई चुनाव नहीं है। मैं तो वही कह देता हं जो कुछ भी घटता है उसी क्षण में। मैं नहीं जानता कि अगला वाक्य कौनसा होगा। जो कुछ हो, मैं उसे पूरी निश्चयात्मकता से कह दूंगा। मेरे पास कोई पूर्व –नियोजित नमूना नहीं है। मैं उतना ही विरोधात्मक हूं जितना कि जीवन। और विरोधात्मक होने, सामंजस्य-रहित होने का सारा सार ही यही है कि तुम किसी सिद्धांत से चिपको नहीं। यदि मैं अविरोधी हू तो तुम चिपकोगे। कृष्णमूर्ति के पीछे चलने वाले हैं, वे चिपक जाते हैं उनके शब्दों से, सिद्धांत की भांति। मैंने देखा है बहुतेरे बुद्धिमान लोगों को, बहुत ज्यादा बौद्धिक लोग जो सुनते आ रहे हैं उन्हें तीस-चालीस वर्षों से। वे आते हैं मेरे पास और वे कहते हैं. 'कुछ हुआ नहीं। हमने सुना है कृष्णमूर्ति को, और जो कुछ वे कहते हैं, सच लगता है, ठीक मालूम पड़ता है, बिलकुल ठीक बात, लेकिन तब भी कुछ घटता नहीं। बौद्धिक रूप से समझते हैं उन्हें, लेकिन कुछ भी घटता नहीं।' मैं कहता हूं उनसे, 'यदि तुम सुनते रहे हो उन्हें चालीस वर्ष और बौद्धिक रूप से तुम अनुभव करते हो कि वे ठीक हैं लेकिन कुछ घटता

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