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फ्लैक्स की भी संभावना है-बुद्धत्व की संभावना। हर चीज पवित्र और दिव्य है। जब तुम निंदा करते हो किसी चीज की, तो तुममें ही कुछ गलत होता है।
एक बार लिंची बैठा हुआ था एक पेडू के नीचे और एक व्यक्ति आकर पूछने लगा, 'क्या किसी कुत्ते के लिए संभावना होती है बुद्ध होने की? क्या कोई कुत्ता बुद्ध हो सकता है? क्या कोई कुत्ता संभावना लिए होता है बुद्धत्व की भी?' लिंची ने क्या किया? –वह कूद पड़ा चार पांव के बल पर और भौंकने लगा, 'वूफ--बुफ!' वह कुता बन गया और वह बोला, 'हा कुछ गलत नहीं, एकदम कुछ भी गलत नहीं है कुत्ता होने में।'
यही होता है सच्चे धार्मिक व्यक्ति का दृष्टिकोण कि सारा जीवन दिव्य है, बिना किसी शर्त के। बाजार में रखा कॉर्नफ्लेक्स का पैकेट होने में कुछ गलत नहीं है। इसलिए लोगों को मेरे बारे में बताने से भयभीत मत होना। और भयभीत मत हो जाना बाजार से। बाजार सदा से मौजूद रहा है और सदा रहेगा। और बाजार में कुछ भी चलता रहता है। गलत चीजें भी बेची जाएंगी; कोई उसे रोक नहीं सकता। लेकिन गलत चीजों की वजह से, जिनके पास बाजार में बेचने को कोई ठीक चीज होती है, वे लोग भयभीत हो जाते हैं। वे सदा डर जाते हैं और वे सोचते हैं, 'कैसे ऐसी चीज को बाजार में ले आएं जहां कि हर चीज गलत चल रही है?' लेकिन यह बात किसी ढंग से मदद नहीं बनती, बल्कि इसके विपरीत, तुम गलत चीज के बिकने में मदद करते हो।
अर्थशास्त्र में एक नियम है जो कहता है कि खोटे सिक्के असली सिक्कों को बाजार से बाहर होने पर मजबूर कर देते हैं। यदि तुम्हारे पास एक खोटा सिक्का होता है और एक असली सिक्का होता है तो मानव मन की प्रवृत्ति होती है –पहले खोटे सिक्के को चलाने की कोशिश करने की। तुम उससे छुटकारा पाना चाहते हो; असली सिक्के को तो रख लेते हो तम्हारी जेब में और खोटे सिक्के को चला देते हो बाजार में। इसीलिए इतने सारे खोटे सिक्के चलते रहते हैं। किसी को लाना ही पड़ता है असली सिक्के को बाजार में। और एक बार तम असली सिक्के को बाजार में ले आते हो, तो वह असलीपन ही काम कर जाता है।
जरा सोचो तो-यदि खोटी चीजें चलती हैं, तो फिर सच्ची क्यों नहीं? लेकिन जिन लोगों के पास सच्ची चीज होती है वे सदा भयभीत होते हैं अनावश्यक समस्याओं से। बहुत से लोगों को मैं जानता हूं जो कि मेरे बारे में लोगों से कहते हुए भी डरते हैं। वे सोचते हैं, 'जब ठीक घड़ी आएगी-तब।' कौन जाने कब आएगी वह घड़ी? वे सोचते हैं, 'कैसे कह सकता हूं मैं? अभी तो मेरा अनुभव भी कुछ ज्यादा नहीं!' फिर वे सोचते हैं कि 'यदि मेरे बारे में कुछ कहते हैं तो बात किसी प्रचार जैसी हो जाती है। यदि तुम टी वी या रेडियो द्वारा कुछ कहते हो, या कि तुम लेख लिखते हो अखबारों में, तो ऐसा लगता है कि तुम कुछ बेच रहे हो। यह बात सस्ती मालूम पड़ती है। लेकिन लोग जो बेच रहे हैं बुरी और झूठी चीजें, वे भयभीत नहीं हैं, इस बात से उन्हें कुछ फिक्र नहीं। उन्हें तो इसकी भी फिक्र नहीं कि पैकेट के