Book Title: Patanjali Yoga Sutra Part 02
Author(s): Osho
Publisher: Unknown

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Page 410
________________ जरा ध्यान से देखना बुद्ध की प्रतिमा को या कभी झांकना मेरी आंखों में और तुम पाओगे दोनों को साथ-साथ : एक आनंद, एक शाति, और एक उदासी भी। तुम पाओगे एक आनंदपूर्णता जिसमें उदासी भी होती है, क्योंकि वही उदासी उसे एक गहराई देती है। देखो बुद्ध की प्रतिमा की तरफ-आनंदपूर्ण हैं, लेकिन उदास भी हैं! यह 'उदास' शब्द ही तुम्हें गलत अवधारणा दे देता है, कि कोई चीज गलत है, यह तुम्हारी अपनी व्याख्या होती है। मेरे देखे, जीवन अपनी समग्रता में ठीक होता है। और जब तुम जीवन को उसकी समग्रता में समझते हो, केवल तभी तम उत्सव मना सकते हो अन्यथा नहीं। उत्सव का अर्थ है जो कुछ घटता है, अप्रासंगिक है-मैं उत्सव मनाऊंगा। उत्सव के लिए कोई शर्त नहीं किन्हीं चीजों की: 'जब मैं प्रसन्न होऊं तभी मैं उत्सव मनाऊंगा', या कि 'जब मैं उदास होऊंगा तो मैं उत्सव नहीं मनाऊंगा।' उत्सव बेशर्त है, मैं उत्सव मनाता हूं जीवन का। यह उदासी, दुख ले आती है तो ठीक, मैं इसका उत्सव मनाता हूं। जीवन आनंद लाता है -तो ठीक, मैं इसका उत्सव मनाता हूं। उत्सव मेरी दृष्टि है, जो कुछ जीवन ले आए उसके प्रति एक बेशर्त भाव। लेकिन समस्या उठ खड़ी होती है क्योंकि जब कभी मैं शब्दों का उपयोग करता हैं तो उन शब्दों के तुम्हारे मन में कुछ अर्थ होते हैं। जब मैं कहता हूं, 'उत्सव मनाओ', तुम सोचते हो, तुम्हें प्रसन्न हो जाना चाहिए। कैसे कोई उत्सवमय हो सकता है जब कि कोई उदास होता है? मैं नहीं कह रहा हैं कि प्रसन्न ही होना पड़ता है उत्सव मनाने के लिए। उत्सव तो एक अहोभाव है उसके लिए जो कि जीवन तुम्हें देता है। जो कुछ भी परमात्मा तुम्हें देता है, उत्सव उसके प्रति एक अहोभाव है, वह एक धन्यवाद है। मैंने तुमसे कहा है और मैं फिर कहंगा तुमसे एक सूफी फकीर बड़ा गरीब, भूखा, अस्वीकृत, यात्रा का थका-मादा था। वह रात को पहुंचा एक गांव में -और गाव था कि उसे स्वीकार न करता था। गांव था परंपरावादी लोगों का और जब परंपरावादी, रूढ़िवादी मुसलमान हों तो बहुत कठिन होता है उन्हें राजी करना। उन्होंने तो उसे शरण तक न दी अपने नगर में। सर्दी की रात थी और उसे भूख लगी थी, थका हुआ था, पर्याप्त कपड़े न होने से कांप रहा था। वह नगर के बाहर बैठा हुआ था एक वृक्ष के नीचे। उसके शिष्य वहा बैठे थे बहुत उदास, निराश थे, क्रोधित भी थे। और तब वह प्रार्थना करने लगा और वह कहने लगा परमात्मा से, 'आप अपूर्व हैं! आप सदा मुझे दे देते हैं जो कुछ भी चाहिए होता है।' यह तो जरा ज्यादती हुई जाती थी। एक शिष्य कह उठा, 'ठहरिए जरा, आप तो ज्यादा ही कल्पनाशील हो रहे हैं, विशेष कर इस रात। ये शब्द झूठे हैं। हमें भूख लगी है, थके हुए हैं, वस्त्र नहीं, और ठंडी रात का अंधेरा फैलता जा रहा है। चारों तरफ जंगली जानवर हैं और हमें नगर द्वारा अस्वीकृत किया गया है, हमारे पास ठहरने को जगह नहीं। तो किस बात के लिए आप धन्यवाद दे रहे हैं परमात्मा को? इससे आपका मतलब क्या है जब आप कहते कि आप सदा मुझे दे देते हैं जो कुछ भी मुझे चाहिए होता है?' वह फकीर कहने लगा, 'ही, मैं फिर से दोहरा दं : परमात्मा मझे दे देता है जो कुछ भी मुझे चाहिए। आज रात मुझे

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