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उपद्रव भभक सकता है। किसी निश्चित स्थिति में अभिव्यक्ति फिर से चली आ सकती है। कभी भी संतुष्ट मत हो जाना उस बाहरी अभिव्यक्ति के तिरोहित हो जाने से, बीज को जलना ही होता है। ध्यान का पहला भाग तुम्हारी मदद करता है बाहरी अभिव्यक्ति को मूलाधार तक लाने में। बाहरी तल पर तुम शात हो जाते हो, लेकिन भीतर चीजें चलती रहती हैं। तब ध्यान को और भी ज्यादा गहरे में उतरना होता है। यह है पतंजलि का फर्क समाधि और ध्यान के बीच। ध्यान प्रथम अवस्था है। ध्यान वह पहली अवस्था है जिसके साथ बाह्य अभिव्यक्तियां तिरोहित हो जाती हैं; और समाधि अंतिम अवस्था है, वह परम ध्यान जहां बीज जल जाते हैं। तुम जीवन और अंतससत्ता के आत्यंतिक स्रोत तक पहुंच चुके होते हो। तब तुम किसी चीज से चिपकते नहीं। तब तुम्हें मृत्यु का भय नहीं रहता।
तब वस्तुत: तुम होते ही नहीं, तब तुम बचते ही नहीं। तब परमात्मा तुममें आ बसता है। और तुम कह सकते हो, 'अहं ब्रह्मस्मि'; मैं ही हूं परमात्मा, आत्यंतिक आधार अस्तित्व का।
आज इतना ही।
प्रवचन 36 - पश्चिम को जरूरत है बुद्धो की
प्रश्न-सार:
1-जीवन की लिप्सा, जीवेषणा का कारण क्या है? और यह जीवन का आनंद मनाने में बाधा क्यों है?
2-पश्चिम के अस्तित्ववादी विचारों ने जीवन की अर्थहीनता जान ली है। लेकिन वे आनंद की खोज क्यों नहीं करते?
3-बुद्धपुरुषों में शारीरिक आवश्यकता, कामवासना क्यों कर तिरोहित हो जाती है?
4-फ्रायड, जुंग और जेनोव आदि लोग स्वयं पर प्रयोग क्यों नहीं करते?