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पाने की आवश्यकता मौजूद होती है। यह कामवासना से बेहतर होती है, लेकिन फिर भी एक अपेक्षा तो होती है। और वही अपेक्षा एक कर्कश सुर होगा प्रेम में वह अभी परिशुद्ध न हुआ ।
करुणा प्रेम की उच्चतम गुणवत्ता होती है, उच्चतम शुद्धता। अब अपेक्षा भी नहीं रहती वहा दूसरा साधन नहीं होता, दूसरा साध्य होता है और अब तुम किसी चीज की अपेक्षा नहीं करते। तुम तो बस दे देते जो कुछ तुम दे सकते हो। अपेक्षा पूरी तरह जा चुकी होती है। बुद्ध संपूर्ण दाता हैं। वे दिए चले जाते हैं, वे आनंदित होते हैं देने से वह सहज बाटना हुआ। अब वह बन चुकी है करुणा- वही ऊर्जा और वही आवश्यकता-अंतस सत्ता के विभिन्न धरातलों पर इसलिए कामवासना तिरोहित हो जाती है बुद्ध में, क्योंकि वह पुन: प्रकट होती है करुणा के रूप में।
चौथा प्रश्न :
आप हा और फ्रायड के जीवन के बारे में बोले और मैने सुना है कि जैनोव ने उसकी अपनी विधियों को नहीं आजमाया है और वह जान पड़ता है बहुत ज्यादा महत्वाकांक्षी क्या आप उसकी विधियों पर चर्चा कर सकते हैं और यह कि उसने स्वयं को स्वस्थ किया भी है या नहीं?
यही है समस्या पश्चिम के सभी विचारकों की उन्होंने अपनी विधियों को नहीं आजमाया है।
वस्तुत:, वे उन विधियों से अपनी आध्यात्मिक खोज के किसी अंश के रूप में नहीं टकराए हैं। अपने रोगियों पर कार्य करते हुए वे जा मिले उन विधियों से
फ्रायड जा टकराया मनोविश्लेषण से, और मैं कहता हूं जा टकराया, क्योंकि वह बात सांयोगिक थी। वह तो बस टटोल रहा था अंधकार में। वह कार्य कर रहा था रोगियों पर वह एक डाक्टर था मदद करने की कोशिश करता था। धीरे धीरे वह जान गया कि ऐसी बहुत सी बीमारियां हैं जो शारीरिक नहीं होतीं, तो शारीरिक रूप से तुम उनकी कितनी ही चिकित्सा किए जाओ और कुछ होता नहीं। फिर वह रुचि लेने लगा सम्मोहन में, क्योंकि कुछ किया जा सकता था सम्मोहन के द्वारा। सम्मोहन के द्वारा उसने काम करना शुरू कर दिया। अपने शिक्षक के साथ काम करते हुए और लोगों की मदद करते हुए वह सम्मोहनविद बना रहा बहुत वर्षों तक फिर धीरे धीरे वह सजग हो गया इस बारे में कि वस्तुतः सम्मोहन ने मदद नहीं की कोई जरूरत न थी कि व्यक्ति को सम्मोहित किया जाए। यदि कोई व्यक्ति पूरी तरह होश में भी हो, उसे बतलाने लगे जो कुछ भी आता हो उसके मन में, जो कुछ भी बहता हो अचेतन से चेतन तक, यदि वह उसे बताता ही चला जाए तो यह बात एक मुक्ति
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