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केवल बीमार मनुष्य जाते हैं इन लोगों के पास - फ्रायड, का, कि एडलर, कि जैनोव । उन बीमार लोगों पर वे आधारित करते हैं अपने दर्शन सिद्धात को
खतरनाक
यह बात होगी ही असंतुलित और केवल असंतुलित ही नहीं, बल्कि एक खास ढंग से भी, क्योंकि वे बीमार प्राणी मानव जाति के वास्तविक प्रतिनिधि नहीं हैं। वे बीमार हैं। यह तो ऐसा ही है जैसे तुम्हें केवल अंधे आदमी मिलते हैं क्योंकि तुम आंखों के डाक्टर हो, इसलिए केवल अंधे लोग आते हैं तुम्हारे पास और फिर तुम आदमी का विचार करते अंधे के रूप में ही । मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति आते हैं तुम्हारे पास तब तुम मनुष्य का विचार करते मानसिक रोगी के रूप में यह बात गलत होती है क्योंकि जब तक स्वस्थ व्यक्ति अस्तित्व नहीं रखते, रोग की संभावना होती है।
सारे पश्चिमी मनोविज्ञान आधारित है रोग विज्ञान पर और वास्तविक मनोविज्ञान की जरूरत है जो कि आधारित होता है स्वस्थ व्यक्ति पर संपूर्ण मनोवीशान को आधारित होना चाहिए बुद्ध जैसे व्यक्तियों पर मात्र सामान्य स्वस्थ व्यक्तियों पर नहीं।
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तो तीन प्रकार के मनोविज्ञान होते हैं। एक, रोगात्मक, सारे पश्चिमी मनोविज्ञान रोगात्मक होते हैं। केवल अभी - अभी इधर कुछ समग्रतावादी धारणाएं मजबूती पा रही हैं जो कि स्वस्थ व्यक्ति के बारे में सोचती हैं, लेकिन वे एकदम प्रारंभ पर ही हैं। पहले कदम भी नहीं उठाए गए हैं। दूसरे प्रकार के मनोविज्ञान हैं, जो सोचते हैं स्वस्थ व्यक्ति के विषय में, जो आधारित हैं स्वस्थ मन पर वे हैं पूरब के मनोविज्ञान बौद्ध धर्म बहुत ज्यादा गहरे उतरने वाला मनोविज्ञान है; पतंजलि का अपना मनोविज्ञान है। वे आधारित है स्वस्थ व्यक्तियों पर स्वस्थ व्यक्ति को स्वस्थ होने में मदद देने के लिए हैं; स्वस्थ व्यक्ति को ज्यादा स्वास्थ्य पाने में मदद देने के लिए हैं। रोगात्मक मनोविज्ञान बीमार व्यक्तियों की मदद करते हैं स्वस्थ होने में।
फिर है एक तीसरा प्रकार। जिसे गुरजिएफ परम मनोविज्ञान कहा करता था, वह अभी भी अविकसित है। उस प्रकार को निर्भर करना पड़ता है बुद्धों पर। वह अभी विकसित नहीं हुआ है, क्योंकि कहां जाओगे बुद्ध का अध्ययन करने को, और कैसे करोगे बुद्ध का अध्ययन? और केवल एक बुद्ध से क्या होगा?
तुम्हें बहुतों का अध्ययन करना होगा। केवल तभी निष्कर्षो तक पहुंच सकते हो। लेकिन किसी दिन वह मनोविज्ञान घटेगा; उसे घटना होगा; उसे होना ही होगा क्योंकि वही तुम्हें दे सकता है मानवीय चेतना का समग्र बोध |
फ्रायड, का, जैनोव – वे सभी बीमार बने रहते हैं। उन्होंने अपनी बात खुद अपने पर कभी न आजमायी। अंधकार में ठोकर खाते हुए, अंधकार में टटोलते हुए, वे कुछ टुकड़ों तक पहुंच जाते हैं और फिर वे सोचते हैं कि वे टुकड़े संपूर्ण पद्धति हैं। जब कभी अंश का दावा किया जाता है संपूर्ण के रूप में, तो वह झूठ बन जाता है। अंश तो अंश ही होता है।