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मृत तुम पर
मंडराता रहता है पीछे की ओर जाओ जब कभी तुम्हारे पास अवसर हो, जब कभी तुम को कुछ घटित हो प्रसन्नता, अप्रसन्नता, उदासी, क्रोध, ईर्ष्या तो आंखें बंद कर लेना और पीछे की ओर वापस जाना। जल्दी ही तुम पीछे की ओर यात्रा करने में कुशल हो जाओगे। जल्दी ही तुम पीछे समय में लौटने योग्य हो जाओगे और तब बहुत सारे घाव खुलेंगे। जब वे घाव खुलते हैं तुम्हारे भीतर, तो कुछ करने मत लग जाना करने की कोई जरूरत नहीं। तुम केवल देखो ध्यान से; घाव वहां मौजूद होता है। तुम केवल ध्यान देना, तुम्हारी ध्यान- ऊर्जा ले जाना घाव की ओर, उसकी ओर देखना। उसकी ओर देखना बिना कोई निर्णय दिए। क्योंकि यदि तुम निर्णय देते हो, यदि तुम कहते हो, 'यह बुरा है, यह ऐसा नहीं होना चाहिए, तो घाव फिर से बंद हो जाएगा। तब उसे छिप जाना पड़ेगा। जब भी तुम निंदा करते हो तो मन चीजों को छिपाने की कोशिश करता है। इसी भांति निर्मित होते हैं चेतन और अचेतन। अन्यथा, मन तो एक है; किसी विभाजन की कोई जरूरत नहीं। लेकिन तुम तो निंदा करते। तब मन को बांट देना पड़ता है और चीजों को अंधकार में रखना पड़ता है, तलघर में, ताकि तुम देख न सकी उन्हें – और तब कोई जरूरत नहीं रहती त्यइंदा करने की ।
निंदा मत करना, प्रशंसा मत करना। तुम केवल साक्षी बने रही, एक अनासक्त द्रष्टा । अस्वीकृत मत करना। मत कहना, 'यह अच्छा नहीं है, क्योंकि वह बात एक अस्वीकृति होती है और तुमने दमन शुरू कर दिया होता है। निर्लिप्त हो जाओ। केवल ध्यान दो उस पर और देखो। करुणापूर्ण देखो और स्वस्थता घटित हो जाएगी।
मत पूछना मुझसे कि ऐसा क्यों घटता है, क्योंकि यह एक स्वाभाविक घटना है। यह ऐसी ही है जैसे सौ डिग्री पर पानी का वाष्पीकरण हो जाता है। तुम कभी नहीं पूछते, 'निन्यानबे डिग्री पर क्यों नहीं होता?' कोई नहीं उत्तर दे सकता है इसका ऐसा होता ही है कि सौ डिग्री पर पानी वाष्प बन जाता है। इस पर कोई प्रश्न नहीं, और प्रश्न होता है अप्रासंगिक यदि यह वाष्पीकरण होता निन्यानबे डिग्री पर, तो तुम पूछते, क्यों? यदि यह वाष्पीकरण अट्ठानबे डिग्री पर होता तो तुम पूछते, क्यों यह एकदम स्वाभाविक है कि सौ डिग्री पर पानी का वाष्पीकरण हो जाता है।
यही बात आंतरिक स्वभाव के विषय में सत्य है। जब कोई अनासक्त, करुणामयी चेतना घाव तक चली जाती है, घाव तिरोहित हो जाता है, वाष्प बन जाता है उस पर क्यों का कोई प्रश्न चिह्न नहीं होता है। यह तो बस स्वाभाविक है, ऐसा ही होता है, यह इसी तरह घटता है। जब मैं ऐसा कहता हूं तो अनुभव से कहता हूं। आजमाना इसे और अनुभव तुम्हारे लिए संभव है, यही है मार्ग ।
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प्रति –प्रसव द्वारा व्यक्ति कर्मों से मुक्त हो जाता है। कर्म भविष्य पर जोर देने की कोशिश करते हैं। वे तुम्हें अतीत में नहीं जाने देते। वे कहते हैं, 'भविष्य में सरको। अतीत में तुम क्या करोगे? कहा जा रहे हो तुम? क्यों व्यर्थ करते हो समय? कुछ करो भविष्य के लिए!' कर्म सदा जोर देते हैं कि "भविष्य में जाओ ताकि अतीत अचेतन में छिपा रहे। 'उलटी प्रक्रिया शुरू करो प्रतिप्रसव। मन की बात मत सुनना जो कि भविष्य में जाने को कहता है जरा ध्यान देना मन सदा भविष्य के बारे में