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हिंदू कहते हैं, 'नहीं, परमात्मा को बीच में मत लाओ क्योंकि उलझनें आ बनेंगी। या तो वह न्यायपूर्ण होगा तब तो करुणा के लिए कोई स्थान ही न रहेगा, या उसमें करुणा होगी तो वह न्यायपूर्ण नहीं हो सकता।' इस कारण लोग सोचेंगे कि अच्छे और बुरे काम- इनका वस्तुतः कोई सवाल नहीं, केवल प्रार्थना, पवित्र स्थानों की तीर्थयात्रा ठीक है हिंदू कहते हैं यह तो एक सीधा साफ प्राकृतिक नियम है, प्रार्थना कोई मदद न देगी। यदि तुमने कुछ बुरा किया है तो तुम्हें दुख भोगना होगा कोई प्रार्थना मदद नहीं कर सकती तो मत प्रतीक्षा करना प्रार्थना के लिए, और मत गंवाना तुम्हारा समय प्रार्थना में। यदि तुमने कुछ बुरा किया है तो तुम्हें पीड़ा भोगनी ही होगी; यदि तुमने अच्छा काम किया है तो तुम आनंद मनाओगे।
लेकिन कोई उन चीजों को बांट नहीं रहा होता तुम्हारे लिए संसार में कहीं कोई व्यक्ति नहीं यह एक नियम है, अव्यक्तिगत। यह बात ज्यादा वैज्ञानिक है। यह जटिलताएं कम निर्मित करती है और समस्याओं को सुलझाती ज्यादा है। प्रकृति के नियम के विषय में हिंदुओं की जो अवधारणा है, ऋतु, वह संसार के प्रति बने वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ हर ढंग से अनुकूल बैठती है तो क्या कर सकते हो तुम? तुमने बुरा किया, तुमने अच्छा किया; दुख और सुख पीछे पीछे चले आएंगे छाया की भाति । कैसे होता है यह? क्या करना होगा?
दो दृष्टिकोण हैं पूरब में एक तो पतंजलि का और दूसरा है महावीर का महावीर कहते हैं, यदि तुमने कुछ गलत किया है तो तुम्हें कुछ सही करना होगा संतुलन लाने को, अन्यथा तो तुम पीड़ा भोगोगे।' यह बात तो जरा ज्यादा बड़ी लगती है, क्योंकि बहुत जन्मों से तुम लाखों चीजें करते रहे हो। यदि हर चीज का हिसाब किताब चुकाना हो, तो इसमें लाखों जन्म लगेंगे। और फिर भी खाता बंद न होगा क्योंकि तुम्हें जीने पड़ेंगे ये लाखों जन्म, और तुम निरंतर रूप से वे चीजें करते रहोगे जो ज्यादा भविष्य निर्मित कर देंगी। हर चीज ले जाती किसी दूसरी चीज तक, एक चीज से दूसरी चीज तक, हर चीज परस्पर जुड़ी होती है। तब तो स्वतंत्रता की कोई संभावना ही नहीं जान पड़ती।
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पतंजलि का दृष्टिकोण एक दूसरा दृष्टिकोण है। वह ज्यादा गहरे उतरता है। सवाल अच्छाई द्वारा संतुलन बनाने का नहीं, अतीत अनकिया नहीं किया जा सकता है। तुमने अतीत में एक व्यक्ति को मार दिया- महावीर का दृष्टिकोण ऐसा है, अब तुम संसार में अच्छी अच्छी बातें करो लेकिन तुम अच्छी बातें करते भी हो, तो वह आदमी फिर से जी नहीं उठता है। वह आदमी मर गया, सदा के लिए मर गया। वह हत्या सदा के लिए तुम्हारे भीतर एक जख्म की भाति बनी रहेगी। शायद तुम स्वयं को तसल्ली दे सकते हो कि तुमने इतने सारे मंदिर और धर्मशालाएं बनाई हैं, और तुमने लाखों रुपये दान दे दिए हैं लोगों को। शायद यह बात एक सांत्वना होगी, लेकिन अपराध तो मौजूद रहेगा ही। कैसे तुम हत्या का हिसाब बराबर कर सकते हो? उसे निष्प्रभाव नहीं किया जा सकता। तुम अतीत को अनकिया नहीं कर सकते।
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