Book Title: Patanjali Yoga Sutra Part 02
Author(s): Osho
Publisher: Unknown

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Page 352
________________ पहले तो वे अपने को हटा लेते हैं शरीर से, फिर होती हैं सूक्ष्म पर्ते, सूक्ष्म शरीर, फिर वे उतरते चले जाते हैं भीतर। चौथे चरण में वे विलीन हो जाते हैं; वे चार चरण चल लेते हैं भीतर की ओर। चौथे चरण पर वे विलीन हो जाते हैं। वे चार चरण चलते हैं भीतर की ओर। बुद्ध मृत्यु के कारण नहीं मरते हैं, वे मरते हैं स्वयं। और जब तुम मरते हो स्वयं ही तो उसका अपना सौंदर्य होता है, उसमें एक गरिमा होती है। तब कोई संघर्ष नहीं रहता है। जब आदमी को होश होता है, तो वह जीता है इसी क्षण में, अतीत के कारण नहीं। यही है भेद यदि तुम जीते हो अतीत में तब भविष्य निर्मित होता है, कर्म का चक्र बढ़ता चलता है, यदि तुम जीते हो वर्तमान को तो फिर कर्म का चक्र नहीं बना रहता। तुम उसके बाहर होते हो, तुम उससे बाहर आ जाते हो। कोई भविष्य निर्मित नहीं होता। वर्तमान कभी निर्मित नहीं करता भविष्य को, केवल अतीत निर्मित करता है भविष्य को। तब जीवन बन जाता है अतीत की किसी अविच्छिन्न धारा से रहित पल –प्रतिपल की घटना। तुम जीते हो इसी क्षण को। जब यह क्षण चला जाता है तो एक दूसरा क्षण मौजूद हो जाता है। तुम जीते हो दूसरे क्षण को अतीत के माध्यम से नहीं, बल्कि तुम्हारे जागरण, सजगता, तुम्हारी अनुभूति, तुम्हारी अंतस-सत्ता से। तब कोई चिंता नहीं रहती, कोई स्वप्न नहीं, अतीत का कोई प्रभाव नहीं। तुम बिलकुल निर्भार होते हो, तुम उड़ सकते हो। गुरुत्वाकर्षण अपने अर्थ खो देता है। तुम अपने पंख खोल सकते हो। तुम आकाश में विचरते पक्षी हो सकते हो, और तुम आगे और आगे और आगे चले चल सकते हो। पीछे लौटने की कोई जरूरत नहीं रहती। वापस आ जाने को कोई जगह न रही, वह स्थल पहंचा है, जहां से कोई वापसी नहीं। क्या करना होगा? पिछले संचित कर्मों के साथ तुम्हें अपनानी होगी प्रति -प्रसव की विधि। तुम्हें लौटना होता है पीछे की ओर उसे जीते हुए, फिर से जीते हुए ताकि घाव भर जाएं। अतीत की बात खत्म हो गयी तुम्हारे लिए-घाव बंद हो जाता है। दूसरी बात यह होती है कि जब पिछला खाता बंद हो जाता है, तो तुम्हारे लिए खत्म हो जाती वह बात सारा संचित जल गया, बीज जल गए, जैसे कि तुम्हारा कभी अस्तित्व ही न था, जैसे कि तुम बिलकुल इसी क्षण उत्पन्न हुए हो, ताजे, सुबह की ओस की बूंदों से ताजे। तब जीना जागरूकता सहित। जो कुछ भी तुमने किया तुम्हारी पिछली स्मृतियों के साथ, अब वही कुछ करना वर्तमान घटना के साथ। तुम फिर से जीए चैतन्य सहित, अब हर क्षण जीयो चैतन्य सहित। यदि तुम हर क्षण को जी सकते हो चैतन्य सहित तो तुम कर्मों को संचित नहीं करते, बिलकुल ही संचित नहीं करते। तुम जीते हो एक निर्भार जीवन। यही अर्थ है संन्यास का निर्भार होकर जीना। हर क्षण दर्पण साफ कर देना ताकि कोई धूल इकट्ठी न हो, और जैसा जीवन हो, दर्पण सदा उसे ही प्रतिबिंबित करे। एक निर्भार जीवन जीना, बिना किसी गुरुत्वाकर्षण के जीना, पंखों सहित जीना, खुले आकाश -सा जीवन जीना ही संन्यासी होना है। पुरानी किताबों में यह कहा गया है कि संन्यासी आकाश -पक्षी है -वह है। जैसे कि आकाश के पक्षी कोई

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