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पूरब के मनोविज्ञान स्वस्थ व्यक्तियों के लिए हैं, तुम्हें ज्यादा संपूर्ण होने में मदद देने के लिए हैं। और मेरा प्रयास होगा तीसरे प्रकार के मनोविज्ञान पर कार्य करने का, बुद्धों का मनोविज्ञान, क्योंकि वह तुम्हें संपूर्ण मानवीय चेतना में एक परिपूर्ण प्रवेश दिलाएगा।
रोग अध्ययनों पर आधारित मनोविज्ञान अच्छे होते हैं, वे मदद करते हैं बीमार लोगों की। लेकिन वह बात ध्येय कभी नहीं बन सकती। वह अच्छी होती है, मगर मात्र स्वस्थ हो जाना, 'सामान्य' हो जाना कोई ज्यादा बड़ी बात नहीं मात्र सामान्य होना कोई बड़ी बात नहीं क्योंकि हर कोई सामान्य है। बीमार होना बुरा है क्योंकि तुम पीड़ित होते हो। लेकिन सामान्य होना भी कोई ज्यादा अच्छा नहीं क्योंकि सामान्य व्यक्ति लाखों क्या से पीड़ा भोग रहे हैं। वस्तुत: सामान्य होने का केवल इतना ही अर्थ है कि समाज के साथ अनुकूलित हो जाना। समाज स्वयं तो शायद अस्वाभाविक ही होगा, सारा समाज शायद स्वय ही बीमार होगा। उसके साथ अनुकूलित होने का केवल यही अर्थ होता है कि स्वाभाविक रूप से अस्वाभाविक हो, बस इतना ही
तुम
उससे कुछ ज्यादा लाभ नहीं होता। तुम्हें सामाजिक सामान्यता के पार जाना पड़ता है तुम्हें पार चले जाना होता है सामाजिक पागलपन के केवल तभी पहली बार तुम स्वस्थ होते हो।
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पूरब के मनोविज्ञान योग, झेन, सूफीवाद, सभी स्वस्थ व्यक्तियों की मदद करते हैं- ज्यादा स्वस्थ और विशुद्ध होने में तीसरे प्रकार के मनोविज्ञान की जरूरत है, बहुत जल्दी जरूरत है, क्योंकि बिना उसके तुम्हारे पास कोई ध्येय निश्चित अंत का कोई बोध नहीं है। उस पर कार्य करना होगा। गुरजिएफ ने अपनी ओर से पूरी कोशिश की, लेकिन सफल न हो सका। समय परिपक्व न था। मैं फिर उसी के लिए कोशिश कर रहा हू। कठिन है उसमें सफल होना, लेकिन संभावना है, उसकी ओर प्रयत्न करते रहना है। यदि थोड़ा सा और प्रकाश भी मानव के उस संपूर्ण, उस अंतिम, परम मनोविज्ञान पर डाला जाए, तो वह अच्छा है, बहुत सहायक है।
आज इतना ही