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बुदबुदा, किसी भी क्षण फटने को तैयार। फिर वे देखते हैं कि एक मृत व्यक्ति को ले जाया जा रहा है। पश्चिम में तो कथा यहीं समाप्त हो गयी होती का आदमी, मरा हुआ आदमी। लेकिन भारतीय कथा में, मृत व्यक्ति के बाद वे देखते हैं एक संन्यासी कों-वही है दवार। और तब वे अपने रथवाहक से पूछते हैं, 'कौन है यह आदमी, और क्यों यह गैरिक वस्त्रों में है? क्या हुआ है इसे? किस तरह का आदमी है यह?' रथवाहक कहता है, 'इस आदमी ने भी जान लिया है कि जीवन मृत्यु की ओर ले जाता है और वह उस जीवन की तलाश में है जो मृत्यविहीन है।'
यही था वातावरण. जीवन मृत्यु के साथ ही समाप्त नहीं हो जाता है। बुद्ध की कहानी दर्शाती है कि मृत्य को देखने के बाद, जब जीवन अर्थहीन अनुभव होता है, तो अचानक एक नया आयाम उदित होता है, एक नयी दृष्टि-संन्यास; जीवन के अधिक गहरे रहस्य में उतरने का प्रयास; दृश्य में ज्यादा गहरे उतरना अदृश्य तक पहुंचने के लिए; पदार्थ में इतने ज्यादा गहरे उतरना कि पदार्थ तिरोहित हो जाता है और तुम मौलिक सत्य तक आ पहुंचते हो, आध्यात्मिक ऊर्जा का सत्य, वह ब्रह्म। सार्च, काम
और हाइडेगर के साथ तो कथा समाप्त हो जाती है मृत व्यक्ति पर ही। संन्यासी नहीं मिलता, वही है एक लुप्त कड़ी।
यदि तुम मुझे समझ सको, वही तो कर रहा हूं मैं : इतने सारे संन्यासियों का सृजन कर रहा हूं, उन्हें भेज रहा हूं सारे संसार में, ताकि जब कभी ऐसा व्यक्ति हो जो कि सार्च की भांति इस समझ तक .पहुंच जाए कि जीवन अर्थहीन है, तो कोई संन्यासी जरूर होना चाहिए वहां अनुसरण किये जाने के लिए, एक नयी दृष्टि देने के लिए कि जीवन मृत्यु के साथ ही समाप्त नहीं हो जाता है। एक स्थिति समाप्त होती है, लेकिन स्वयं जीवन ही समाप्त नहीं हो जाता है।
वस्तुत:, जीवन केवल तभी आरंभ होता है, जब मृत्यु आ जाती है। क्योंकि मृत्यु तो केवल तुम्हारा शरीर ही समाप्त करती है, तुम्हारे अंतस्तल की सत्ता नहीं। शरीर का जीवन केवल एक भाग है, एक बड़ा सतही भाग, बाहरी भाग।
पश्चिम में, भौतिकवाद एक व्यापक दृष्टि ही बन गया है। पश्चिम के तथाकथित धार्मिक व्यक्ति भी पूरे भौतिकवादी हैं। वे जाते होंगे चर्च, वे विश्वास रखते होंगे ईसाइयत में, लेकिन वह हल्का –सा सतही विश्वास भी नहीं है। वह एक सामाजिक औपचारिकता है। उनको जाना पड़ता है रविवार को चर्च में, वह एक करने जैसी बात होती है -दूसरों की दृष्टि में 'ठीक व्यक्ति' बने रहने के लिए कुछ करने की ठीक बात। तुम ठीक बातें करने वाले ठीक व्यक्ति होते हो-एक सामाजिक औपचारिकता। लेकिन भीतर हर कोई भौतिकवादी हो गया है।
भौतिकवादी विश्वदृष्टि कहती है कि मृत्यु के साथ ही हर चीज समाप्त हो जाती है। यदि यह बात सच है तब तो रूपांतरण की कोई संभावना ही न रही। और यदि हर चीज समाप्त हो जाती है मृत्यु के साथ तो फिर जीने में कोई सार नहीं। तब तो आत्महत्या ही है एक सही उत्तर।