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से, साक्षी होने से, तुम और ऊंचे और ऊंचे और ऊंचे उठते जाते हो -और एक क्षण आता है, जब मात्र तुम्हारी ऊंचाई के कारण, मात्र तुम्हारी शिखर चेतना के कारण, घाटी बनी रहती है वहा, लेकिन तुम अब नहीं रहते घाटी के हिस्से, तुम उसका अतिक्रमण कर जाते हो। शरीर कामवासनामय बना रहता है, लेकिन तुम वहा नहीं रहते उसका सहयोग देने को। शरीर तो बिलकुल स्वाभाविक बना रहता है, लेकिन तुम उसके पार जा चुके होते हो। वह कार्य नहीं कर सकता है बिना तुम्हारे सहयोग के। ऐसा घटा बुद्ध को।
इस शब्द 'बुद्ध' का अर्थ है-वह व्यक्ति जो कि जागा हुआ है। यह केवल गौतम बुद्ध से संबंध नहीं रखता है। बुद्ध कोई व्यक्तिगत नाम नहीं है, वह चेतना की गुणवत्ता है। क्राइस्ट बुद्ध हैं, कृष्ण बुद्ध हैं, और हजारों बुद्धों का अस्तित्व रहा है। यह चेतना की एक गुणवत्ता है-और यह गुणवत्ता क्या है?-जागरूकता। ज्यादा ऊंची, और ज्यादा ऊंची जाती है जागरूकता की लौ और एक क्षण आ जाता है जब शरीर मौजूद होता है-पूरी तरह क्रियान्वित और स्वाभाविक, संवेदनशील, सवेगवान, जीवंत, लेकिन तुम्हारा सहयोग वहां नहीं होता। तुम अब साक्षी होते हो, कर्ता नहीं-कामवासना तिरोहित हो जाती है।
भोजन तिरोहित नहीं हो जाएगा, बुद्ध को भी आवश्यकता होगी भोजन की, क्योंकि यह एक निजी आवश्यकता होती है, कोई सामाजिक आवश्यकता, कोई जातिगत आवश्यकता नहीं। निद्रा तिरोहित नहीं होगी, वह एक व्यक्तिगत आवश्यकता है। वह सब जो व्यक्तिगत है, मौजूद रहेगा, वह सब जो जातिगत है, तिरोहित हो जाएगा और इस तिरोभाव का एक अपना ही सौंदर्य होता है।
यदि तुम देखो किसी हठयोगी की ओर तो तुम देखोगे एक अपंग प्राणी को। उसके चेहरे से आ रही केसी आभा को नहीं देख सकते हो तुम। उसने नष्ट कर दिया है अपना रसायन, वह सुंदर नहीं है। यदि तुम देखते हो दमन से भरे मुनि को, वह तो और भी असुंदर होता है क्योंकि उसकी आंखों से
चेहरे से तम देखोगे सब प्रकार की कामकता चारों ओर गिरते हए। उसके आस-पास कामवासनामय वातावरण होगा-असुंदर और गंदा। स्वाभाविक आदमी बेहतर होता है, कम से कम वह स्वाभाविक तो होता है। लेकिन विकृत आदमी बीमार होता है और वह बीमारी लिए रहता है अपने चारों ओर।
मैं तीसरे के पक्ष में हं, लेकिन इस बीच तुम स्वाभाविक बने रहो। दमन करने की कोई जरूरत नहीं, शरीर को अपंग करने वाली किन्हीं विधियों को आजमाने की जरूरत नहीं-कोई जरूरत नहीं। स्वाभाविक हो जाओ और अपने बुद्धत्व के लिए साधना जारी रखो। स्वाभाविक हो जाओ और ज्यादा से ज्यादा सचेत और सजग हो जाओ। एक क्षण आ जाएगा जब कामवासना बिलकुल तिरोहित हो जाती है। जब वह अपने से तिरोहित हो जाती है, वह अपने पीछे बड़ी आभा, बड़ा प्रसाद, बड़ा सौंदर्य छोड़ जाती है। तिरोहित होने के लिए उसे विवश मत करना, वरना वह पीछे सारे घाव छोड़ जाएगी और तुम सदा उन्हीं घावों के साथ रहते रहोगे। उसे स्वयं ही जाने दो। केवल द्रष्टा बने रहो और