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करता इस बारे में। यदि मैं संन्यास देता हूं पचास हजार लोगों को और केवल पचास सच्चे प्रमाणित होते हैं, तो उतने पर्याप्त होंगे
पश्चिम को जरूरत है संन्यासियों की। वहां कथा उस जगह तक पहुंच गयी है, जहां मृत व्यक्ति ढोया जा रहा है। अब संन्यासी को प्रकट होना है पश्चिम में। और संन्यासी को होना चाहिए पश्चिम का, पूरब का नहीं, क्योंकि पूरब का संन्यासी तो देर- अबेर शिकार हो जाएगा, उस सब का जो -जो तुम दे सकते हो। वह बेचने लगेगा, वह विक्रेता बन जाएगा क्योंकि वह आया होता है भूखे मर रहे दरिद्र पूरब से। धन है उसका परमात्मा।
संन्यासी को पश्चिम का होना चाहिए; वह जो आया हो पश्चिम की भूमि से, जो जानता हो जीवन की अर्थहीनता; जो भौतिकवाद के सारे प्रयास की हताशा को जानता हो; जो मार्क्सवाद की, साम्यवाद की और सारे भौतिकवादी दर्शनों की व्यर्थता को जानता हो। अब यह हताशा पश्चिम के आदमी के खून में है। एकदम हइड़ियों में धंसी है।
इसलिए मेरी सारी रुचि है जितना संभव हो उतना पश्चिमी लोगों को संन्यासी बनाने में और उन्हें वापस घर भेज देने में। बहुत से सार्च प्रतीक्षा कर रहे हैं वहां। उन्होंने देखा है मृत्यु को। वे प्रतीक्षा कर रहे हैं गैरिक वस्त्रों को देखने की, और गैरिक वस्त्रों सहित उस आनंदमयता की जो कि पीछे - पीछे ही चली आती है।
तीसरा प्रश्न:
बुद्ध जीते हैं सबसे ऊंची संवेदनशीलता सहित और इससे वे पूरी अनुभूति पाते है अपनी सारी शारीरिक आवश्यकताओं की। क्या कामवासना भी एक शारीरिक आवश्यकता नहीं है रूप तो फिर क्यों वह तिरोहित हो जाती हैं बुद्ध में?
बहुत सारी चीजें समझ लेनी होंगी।
पहली कामवासना भोजन की भांति कोई सामान्य जरूरत नहीं है। वह बहुत असामान्य होती है। यदि भोजन तुम्हें नहीं दिया जाता है तो तुम मर जाओगे, लेकिन बिना कामवासना के तुम जी सकते हो। यदि पानी तुम्हें नहीं दिया जाता है तो शरीर मर जाएगा, लेकिन बिना कामवासना के तम जी सकते