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दूसरा प्रश्न:
पश्चिम के बहुत से अस्तित्ववादी विचारक- सात्र काम आदि- हताशा निराशा और जीवन की अर्थहीनता को जान गए हैं लेकिन उन्होंने पतंजलि की आनंदमयता को नहीं जाना है। क्यों? कौन-सी बात चूक रही है? इस बात पर पतंजलि क्या कहते पश्चिम से?
हा, पश्चिम में कुछ चीजों का अभाव रहा है जिनका भारत में बुद्ध के लिए अभाव नहीं रहा था।
बुद्ध भी उसी स्थल तक पहुंचे जहां कि सार्च है? अस्तित्ववादी निराशा, व्यथा, यह अनुभूति कि सब व्यर्थ है, कि जीवन अर्थहीन है, तो एक नया प्रारंभ मौजूद था भारत में; सड़क का अंत नहीं थी वह बात। वस्तुत: वह मात्र अंत थी एक सड़क का लेकिन दूसरी तो तुरंत खुल गई थी; एक द्वार का बंद होना लेकिन दूसरे का खुल जाना। यही है भेद आध्यात्मिक संस्कृति और भौतिक संस्कृति के बीच। एक भौतिकवादी कहता है, 'यही है सब कुछ; जीवन में और कुछ नहीं है।' एक भौतिकवादी कहता है कि वह सब जो तुम देखते हो वही है सारी सच्चाई। यदि वह अर्थहीन बन जाती है, तो कहीं कोई
द्वार खुला नहीं है। एक अध्यात्मवादी कहता है, 'यही सब नहीं है, दृश्य ही सब कुछ नहीं, स्थूल ही सब कुछ नहीं। जब यह समाप्त हो जाता है, तो अचानक एक नया द्वार खुलता है और यह भी अंत नहीं है। जब यह समाप्त हो जाता है, तो दूसरे आयाम की ओर एक' प्रारंभ है यह बात।
जीवन की भौतिकवादी अवधारणा और जीवन की आध्यात्मिक अवधारणा के बीच यही एकमात्र अंतर होता है -विश्वदृष्टियों का अंतर। बुद्ध उत्पन्न हुए थे आध्यात्मिक विश्वदृष्टिकोण के बीच। वह सब कुछ जो हम करते हैं उसकी अर्थहीनता उन्होंने भी जान ली थी, क्योंकि मौत आती है और मौत खत्म कर देती हर चीज, तो सार क्या है कुछ करने में या न करने में? चाहे तुम करते हो या नहीं करते, मौत आती है और हर चीज को समाप्त कर देती है। चाहे तुम प्रेम करो या नहीं, वृद्धावस्था आती और तुम जर्जर हो जाते, हड्डियों का पिंजर बन जाते। चाहे तो निर्धनता का जीवन जीयों या कि समदधि का, मत्य दोनों को मिटा देती है; वह इसकी परवाह नहीं करती कि तम कौन हो? तम एक संत हो सकते हो, तुम एक पापी हो सकते हो-मृत्यु को इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता। मृत्यु एकदम कम्युनिस्ट है; वह हर किसी से बराबर का व्यवहार करती है। संत और पापी दोनों मिट्टी में मिल जाते हैं -मिट्टी मिट्टी में मिल जाती है। बुद्ध इस बात को जान गए थे, लेकिन आध्यात्मिक विश्वदृष्टि मौजूद थी, वातावरण अलग था।
मैंने कही न तुमसे बुद्ध की वह कथा! वे देखते हैं एक के आदमी को, तो वे जान लेते हैं कि युवावस्था एक अस्थायी, एक क्षणिक घटना है उठती और गिरती एक तरंग सागर की, स्थायित्व की कोई बात उसमें नहीं होती; शाश्वत का कछ उसमें नहीं होता; वह स्वप्न की भाति होती है -एक