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से कि यदि 'उसका' अस्तित्व होता है, तो फिर उसके अपने अस्तित्व में बड़ा जबर्दस्त रूपांतरण घटेगा। तो, भयभीत होकर वह यह प्रमाणित करने का प्रयत्न किए चला जाता है कि कहीं कोई ईश्वर नहीं है। ईश्वर नहीं है, यह बात प्रमाणित करने के प्रयास में, वह बड़ा गहरा भय ही दिखला रहा होता है कि ईश्वर पुकार रहा है। और यदि ईश्वर है तो फिर वह वही नहीं बना रह सकता है।
यह बात उस साधु की भांति ही है जो शहर की सड़क पर आंखें मूंद कर या आंखें आधी मूंद कर चल रहा होता है ताकि वह किसी स्त्री को न देख सके। वह कहता जाता है स्वयं से 'कहीं कोई स्त्री नहीं। यह सब कुछ माया है, भ्रम है। यह स्वप्न की भांति है। लेकिन वह क्यों यह प्रमाणित करने की कोशिश करता है कि कहीं कोई प्रेम की बात अस्तित्व नहीं रखती? -क्योंकि वरना तो मसजिदमंदिर मिट जाएंगे, साधु समाप्त हो जाएगा, और जीवन का उसका सारा ढांचा बिखर-बिखर जाएगा।
सब कुछ प्रेम है, और प्रेम सब कुछ है। सर्वाधिक अनगढ़ से लेकर परम उच्चता तक, चट्टान से लेकर परमात्मा तक, प्रेम है। बहुत सारी परतें होती हैं, बहुत सारे सोपान होते हैं, बहुत सारी मात्राएं होती हैं, तो भी होता है प्रेम ही। यदि तुम स्त्री से प्रेम करते हो तो तुम गुरु से प्रेम कर पाओगे। यदि तुम गुरु से प्रेम कर सकते हो, तो तुम परमात्मा से प्रेम कर पाओगे। स्त्री से प्रेम करना देह से प्रेम करना है। देह सुंदर है, गलत नहीं है कुछ उसमें। सचमुच वह चमत्कार है। लेकिन यदि तुम प्रेम कर सको, तो प्रेम विकसित हो सकता है।
ऐसा हुआ कि भारत के बड़े भक्तों में से एक, रामानुज एक शहर से गुजरते थे। एक आदमी आया, और आदमी उस तरह का रहा होगा जो कि साधारणतया धर्म की ओर आकर्षित होता है: योगी, तपस्वी प्रकार का आदमी जो बिना प्रेम के जीने की कोशिश करता है। कोई सफल नहीं हआ है अब तक। कोई कभी होगा नहीं सफल, क्योंकि प्रेम ही आधारभूत ऊर्जा है जीवन की और अस्तित्व की, कोई इसके विरुद्ध होकर सफल नहीं हो सकता है।
उस आदमी ने पूछा रामानुज से, 'मैं दीक्षित होना चाहता हूं आपसे। कैसे मैं पा सकता हूं परमात्मा को? मैं शिष्य के रूप में स्वीकृत होना चाहता हूं।' रामानुज ने देखा उस आदमी की तरफ, और वह देख सकते थे कि आदमी प्रेम के विरुद्ध है। वह मृत चट्टान की भांति था, संपूर्णतया सूखा हुआ, हृदय विहीन। रामानुज बोले, 'पहले मुझे कुछ बातें बताओ। क्या तुमने कभी किसी आदमी से प्रेम किया है?' वह आदमी तो घबड़ा गया क्योंकि रामानुज जैसा आदमी प्रेम की बातें कर रहा था, इतनी साधारण सांसारिक बात!
वह कहने लगा, 'क्या कह रहे हैं आप? मैं एक धार्मिक आदमी हैं। मैंने कभी किसी से प्रेम नहीं किया।' रामानुज ने फिर आग्रह किया। वे बोले, 'जरा अपनी आंखें मुंदो और थोड़ा सोचो। तुमने किया होगा प्रेम, चाहे तुम उसके विरुद्ध भी हो। तुमने यथार्थ में शायद नहीं किया हो प्रेम, लेकिन कल्पना में किया है।' वह आदमी कहने लगा, 'मैं तो बिलकुल ही विरोधी हं प्रेम का, क्योंकि प्रेम ही माया का, भ्रम