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अंधकार वे एक हैं, जीवन-मृत्यु, वे एक हैं। यही सारी समस्या रही है मानव - मन की। करोगे क्या? क्योंकि यदि प्रेम विकसित होता है तो घृणा करने की क्षमता भी विकसित होती है।
इसीलिए केवल दो संभावनाएं होती हैं, या तो घृणा को विकसित होने दो प्रेम के साथ, या प्रेम को मार दो घृणा के साथ और आज तक दूसरा विकल्प चुना गया है। सभी धर्मों ने दूसरा विकल्प लिया है घृणा को काट देना है, क्रोध को काट देना है इसीलिए वे बस प्रेम का उपदेश दिए चले जाते हैं और वे सब कहते रहते हैं, 'घृणा मत करना।' उनका प्रेम आडंबर बन जाता है; वह केवल वार्तालाप होता है। ईसाई बात किए जाते हैं प्रेम की - वह संसार की सबसे अधिक आरोपित बात होती है।
ऐसा ही है जीवन विपरीतताए वहां साथ-साथ हैं। जीवन एक ध्रुव के साथ अस्तित्व नहीं रख सकता, उसे चाहिए दो ध्रुवताएं साथ- साथ: नकारात्मक और विधायक विद्युत - ध्रुव, पुरुष और स्त्री। क्या तुम केवल पुरुष वाले संसार की कल्पना कर सकते हो? वह एक मृत संसार होगा। पुरुष और स्त्री वे दो ध्रुव हैं, वे साथ-साथ अस्तित्व रखते हैं। वस्तुत: 'पुरुष और स्त्री' कहना ठीक नहीं : उनके बीच बिना कोई लकीर लाए कहना चाहिए 'पुरुषस्त्री', वे एक साथ अस्तित्व रखते हैं।
घृणा के साथ कुछ गलत नहीं यदि वह प्रेम का ही हिस्सा हो तो। यह मेरी देशना है। क्रोध कुछ गलत नहीं यदि वह करुणा का हिस्सा है - तो वह सुंदर है। क्या तुम पसंद नहीं करोगे कि बुद्ध तुम पर क्रोध करें? यह बात आशीष की भांति होगी, एक अनुग्रह, कि बुद्ध तुम पर क्रोध करें। करुणा के वृहत्तर संसार में क्रोध भी सुंदर हो जाता है, वह समा लिया जाता है।
प्रेम के प्रति विकसित होओ और घृणा को भी विकसित होने दो, उसे तुम्हारे प्रेम का ही हिस्सा होने दो मैं तुमसे प्रेम को घृणा के विरुद्ध रखने को नहीं कहता हूं; नहीं। मैं तुमसे घृणा सहित प्रेम करने को कहता हूं और ऊर्जा का एक महिमावान बदलाव, एक रूपांतरण घटेगा । तुम्हारी घृणा इतनी सुंदर होगी, उसकी गुणवत्ता प्रेम की भांति ही होगी। कई बार होना पड़ता है क्रोधित और यदि तुम सचमुच ही करूणा करते हो, तो तुम क्रोध का उपयोग तुम्हारी करुणा के लिए करते हो।
सदा याद रखना कि ध्रुवता मौजूद है इसे सामंजस्यता कैसे देनी होती है? पुराना ढंग था उन्हें अलग काट देने का घृणा को गिराने का और बिना घृणा के प्रेममय होने की कोशिश करने का तब प्रेम एक ढोंग हो जाता है, क्योंकि ऊर्जा वहा नहीं रहती । और तुम इतने भयभीत होते हो प्रेम से, क्योंकि तुरंत घृणा विकसित होने लगेगी। घृणा विकसित होने के भय से प्रेम का दमन हो जाता है। तब तुम प्रेम के बारे में बोलते हो, लेकिन तुम सचमुच प्रेम नहीं करते तब तुम्हारा प्रेम मात्र एक वार्तालाप बन जाता है, एक मौखिक बात जीवंत और अस्तित्वगत नहीं।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जाओ और घृणा करने लगो। मैं कह रहा हूं प्रेम करो, प्रेम के साथ विकसित होओ। और निस्संदेह घृणा तो विकसित होगी उसके साथ उसकी फिक्र मत करना। तुम प्रेम सहित विकसित होते जाना और घृणा सोख ली जाएगी प्रेम द्वारा प्रेम इतना विशाल होता है कि