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कैसे तुम वृद्ध हो सकते हो? कैसे युवा हो सकते हो? चेतना इन दोनों में कुछ भी नहीं। वह तो शाश्वत है, वह एक ही है वह जन्मती नहीं, वह मरती नहीं और बनी रहती है-वह स्वयं ही जीवन है।
या, मन को लो-वह है दूसरी, ज्यादा गहरी परत और वह ज्यादा सूक्ष्म होती है और चेतना के ज्यादा निकट होती है। तुम स्वयं को मन ही मान लेते हो। तुम कहे जाते हो, मैं, मैं, मैं। यदि कोई तुम्हारी धारणा का विरोध करता है तो तुम कहते हो, 'यह मेरी धारणा है', और तुम लड़ पड़ते हो उसके लिए। सत्य के लिए कोई विवाद नहीं करता है, लोग बहस करते और वाद-विवाद करते और लड़ते हैं उनके 'मैं' के लिए।'मेरी धारणा का अर्थ है मैं। कैसे तुम्हें हिम्मत पड़ती है विरोध करने की? मैं सिद्ध कर दूंगा कि मैं सही हं।' सत्य की किसी को चिंता नहीं। कौन फिक्र करता है? सवाल तो यह होता है कि सही कौन है सवाल यह नहीं कि सही क्या है। लेकिन फिर लोग तादात्म्य बना लेते हैं, और केवल साधारण लोग ही नहीं, वे व्यक्ति भी जो कि धार्मिक होते हैं।
एक आदमी परिवार त्याग देता है, बच्चे, बाजार, संसार छोड़ देता है और चला जाता है हिमालय की
ओर। तुम पूछते हो उससे, 'क्या तुम हिंदू हो?' और वह कहता है, 'ही'। यह हिंदुत्व है क्या? क्या चेतना हिंदू है, मुसलमान है, ईसाई है? यह है मन। जागरूकता का अभाव होता है यदि तुम अनात्म के साथ तादात्म्य बना लेते हो और सोचते हो कि वह आत्मा है।
और फिर है हृदय, चेतना के सर्वाधिक निकट, लेकिन फिर भी बहुत दूर। तीन तल हुए-शरीर, विचार और भाव। जब तुम्हें भाव की अनुभूति होती है, तो तुम्हें बहुत होश रखना होता है, यह अनुभव करने को कि वह तुम नहीं हो जिसे अनुभूति होती है। वह बात फिर यंत्र का ही हिस्सा है। निस्संदेह, वह चेतना के निकटतम है। हृदय चेतना के निकटतम है, सिर पड़ता है बीच में, और शरीर है सबसे दूर। लेकिन फिर भी, तुम हृदय नहीं हो। अनुभूति भी एक घटना है, वह आती है और चली जाती है वह एक तरंग है, वह उठती है और मर जाती है। वह एक भावदशा है। वह अस्तित्व रखती है और फिर अस्तित्व नहीं रखती है। तुम वह हो जिसका अस्तित्व सदा रहेगा-सदा-सदा, अनंतकाल तक।
'अनात्म को आत्मा जान लेना है जागरूकता का अभाव होना।'
तो फिर जागरूकता है क्या? जागरूकता है इस बात के प्रति होश रखना कि तुम शरीर नहीं हो। इसलिए नहीं कि उपनिषद ऐसा कहते हैं या पतंजलि ऐसा कहते हैं क्योंकि तुम, अपने मन में ऐसा पूरी
तरह बैठा सकते हो कि तुम शरीर नहीं हो। तुम हर सुबह और शाम दोहरा सकते हो, 'मैं शरीर नहीं हं?| उससे मदद न मिलेगी। यह दोहराने की बात ही नहीं है, यह एक गहन समझ की बात है। और यदि तुम समझते हो, तो दोहराने में सार क्या?