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बनना चाहता था। जबरदस्ती यह बात मुझ पर लादी गई। मेरी सारी जिंदगी एक व्यर्थ बात रही है। क्या करूंगा मैं इस नोबल पुरस्कार को लेकर? मैंने चाहा था नृत्यकार बनना। चाहे सबसे बेकार नृत्यकार ही सही, उससे काम चल गया होता, मैं परितृप्त हो गया होता। वह मेरी अंतर की पुकार थी।'
याद रखना इसे, क्यों तुम इतना असंतुष्ट अनुभव करते हो, तुम क्यों सदा बिलकुल ही किसी कारण के बिना इतना असंतोष अनुभव करते हो?-यदि सारी बात ठीक भी चल रही हो। कुछ चूक रहा होता है। क्या चूक रहा होता है?-तुमने अपनी अंतस सत्ता को कभी नहीं सुना। किसी दूसरे ने तुम्हें होशियारी से संचालित किया है, तुम्हें प्रभावित किया है, किसी दूसरे ने तुम्हें शासित किया होता है, किसी दूसरे ने तुम्हें जिंदगी के ऐसे ढांचे में बैठा दिया है जो कि तुम्हारा कभी न था, जिसे तुमने कभी न चाहा था। मैं कहता हूं तुमसे, यदि ऐसा घट भी जाए कि तुम भिखारी बन जाओ, तो फिक्र मत करना यदि वह भी हो तुम्हारी अंतःप्रेरणा। अंतस की पुकार का पता लगा लेना और उसी का अनुसरण करना, क्योंकि ईश्वर नहीं पूछेगा, 'तुम महावीर क्यों नहीं हो, तुम मोहम्मद क्यों नहीं हो, या कि तुम जरथुस्त्र क्यों नहीं हो?' वह पूछेगा 'जोसिया, तुम जोसिया क्यों नहीं हो?
तुम्हें कुछ होना है, और सारा समाज एक बड़ी नकल है, एक झूठा दिखावा। इसीलिए इतनी ज्यादा असंतुष्टि है हर चेहरे पर। मैं देखता हू तुम्हारी आंखों में और मैं पाता हूं-असंतोष, अतृप्ति। हवा का एक झोंका भी तुम तक नहीं आता जो कि तुम्हें प्रसन्नता दे जाए, आनंद दे जाए, ऐसा संभव नहीं। और आनंद संभव होता है। वह एक सरल घटना है स्वाभाविक हो जाओ और निर्मक्त हो जाओ और तुम्हारी अपनी अंत:रुचि का अनुसरण करो। मैं यहां हं, तुम्हारे स्वयं जैसा हो जाने में तुम्हारी मदद करने 'को। जब तम शिष्य हो जाते हो, जब मैं तुम्हें दीक्षा देता हूं, तो मैं तुम्हें अनुकरणकर्ता होने की दीक्षा नहीं दे रहा होता हूं। मैं तो तुम्हारी मदद कर रहा होता हं तम्हारे स्वयं के अस्तित्व का पता लगाने में, तम्हारे अपने प्रामाणिक अस्तित्व का पता लगाने में क्योंकि तुम इतने ज्यादा भ्रमित हो, तुम्हारे इतने ज्यादा चेहरे हैं कि तुम भूल ही गए हो कि कौन-सा चेहरा मौलिक है। तुम नहीं जानते तुम्हारी असली अंतःप्रेरणा क्या है।
समाज ने तुम्हें बिलकुल उलझा दिया है, तुम्हें दिग्भ्रमित कर दिया है। अब तुम्हें इसका कुछ पक्का पता नहीं कि तुम कौन हो। जब मैं तुम्हें दीक्षा देता हूं तो जो एकमात्र बात मैं करना चाहता हूं, वह यह कि तुम्हारे अपने घर तक आ जाने में तुम्हारी मदद करूं। एक बार जब तुम अपनी अंतस सत्ता में केंद्रित हो जाते हो, तो मेरा कार्य समाप्त हो जाता है। तब तुम आरंभ कर सकते हो। वस्तुत: एक गुरु को उसे अनकिया करना पड़ता है जो कि समाज ने किया होता है। गुरु को वह अनकिया करना पड़ता है जिसे संस्कृति ने क्रियान्वित किया होता है। उसे तुम्हें फिर से एक कोरा कागज बना देना होता है।