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यह प्रति-प्रसव की विधि का एक हिस्सा है। जैनोव को शायद ध्यान न हो कि पतंजलि ने करीब पांच हजार वर्ष पहले, एक ढंग सिखाया जिसमें कि प्रत्येक कार्य को ले जाना ही होता था कारण तक। केवल कारण को तोड़ा जा सकता है। तुम काट सकते हो जड़ों को और फिर वृक्ष मर जाएगा। लेकिन तुम शाखाओं को काट कर तो आशा नहीं रख सकते कि वृक्ष मर जाएगा; वृक्ष तो ज्यादा फले - फूलेगा। प्रति -प्रसव एक सुंदर शब्द है, प्रसव का अर्थ हुआ जन्म। जब बच्चा जन्मता है तो होता है प्रसव। प्रति-प्रसव का अर्थ है. तुम फिर स्मृति में उत्पन्न हुए तुम जन्म तक लौट गए, उस प्रघात तक जब किं तुम उत्पन्न हुए थे, और तुम उसे फिर से जीते हो। याद रहे तुम उसे याद ही नहीं करते, तुम उसे जीते हो, तुम उसे फिर से जीते हो।
स्मृति अलग बात होती है। तुम स्मरण कर सकते हो, तुम मौन बैठ सकते हो, लेकिन तुम वही
आदमी रहते जो तुम हो। तुम याद करते कि तुम बच्चे थे और तुम्हारी मा ने तुम्हें जोर से मारा। वह घाव मौजूद होता है, लेकिन फिर भी यह स्मरण करना ही हुआ। तुम एक घटना को याद कर रहे हो, जैसे कि चह किसी दूसरे के साथ घटी हो। उसे फिर से जीना प्रति-प्रसव है। उसे फिर से जीने का अर्थ हुआ कि तुम फिर से बच्चे बन जाते हो। ऐसा नहीं कि तुम याद करते हो, तुम बच्चे बन जाते हो। फिर से तुम उस बात को जीते हो। मां तुम्हारी स्मृति में चोट नहीं पहुंचा रही होती, मा बिलकुल अभी फिर से चोट देती है तुम्हें। वह घाव, वह क्रोध, वह प्रतिरोध, तुम्हारी अनिच्छा, अस्वीकार
और तुम्हारी प्रतिक्रिया, जैसी कि सारी बात ही फिर घट रही होती है। यह है प्रतिक्रिया और यह केवल प्राइमल-थैरेपी के ही रूप में नहीं है बल्कि एक व्यवस्थित विधि है हर खोजी के लिए जो समृद्ध जीवन की, सत्य की खोज में लगा है।
ये पाच क्लेश हैं अविद्या-जागरूकता का अभाव, अस्मिता-अहंकार की अनुभूति; राग-आसक्ति, दवेष -घृणा, और अभिनिवेश-जीवन की लालसा। ये पांच दुख हैं।
पांचों क्लेशों के मूल कारण मिटाए जा सकते हैं उन्हें पीछे की ओर उनके उदगम तक विसर्जित कर देने से।
अंतिम है अभिनिवेश, जीवन की लालसा; प्रथम है अविदया-जागरूकता का अभाव। अंतिम को विसर्जित होना है प्रथम तक, अंतिम को ले आना है प्रथम तक। अब पीछे की ओर चलो. तुममें लालसा है जीवन की; तुम चिपकते हो जीवन से। क्यों? पतंजलि कहते हैं, 'पीछे की ओर जाओ।' क्यों चिपकते हो तम जीवन से?-क्योंकि तुम दुखी होते हो। और दुख निर्मित होता है द्वेष से, घृणा से। दुख निर्भित होता है द्वेष से –हिंसा, ईर्ष्या, क्रोध से -घृणा से। कैसे तुम जी सकते हो यदि इतनी