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हर समाज धर्म के विरुद्ध होता है। मैं तुम्हारे मंदिरों और मसजिदों और चर्चों की बात नहीं कर रहा हूं जिन्हें कि समाज ने निर्मित किया होता है। वे तो चालाकियां हैं। वे तुम्हें मूर्ख बनाने की बातें हैं। वे धर्म के झूठे परिपूरक हैं, वे धर्म नहीं। वे तुम्हें दिग्भ्रमित करने के लिए हैं। तुम्हें चाहिए धर्म, वे कहते हैं, 'ही, आओ मंदिर में, चर्च में, गुरुदवारे में यहां है धर्म। तुम आओ और प्रार्थना करो और उपदेशक है वहा जो कि सिखाएगा तुम्हें धर्म।' यह एक चालाकी होती है। समाज ने झूठे धर्म बना दिए हैं वे धर्म हैं-ईसाइयत, हिंदुत्व, जैन। लेकिन कोई बुद्ध, कोई महावीर या जीसस या मोहम्मद, सदा समाज के बाहर अस्तित्व रखते हैं। और समाज सदा उनसे झगड़ता है। जब वे नहीं रहते, तब समाज उन्हें पूजने लगता है, तब समाज मंदिर निर्मित करता है। और तब कुछ नहीं बचता; सत्य जा चुका होता है, ज्योति विलीन हो चुकी होती है। बुद्ध अब नहीं रहे बुद्ध की मूर्ति में। मंदिरों में तुम पाओगे समाज को, संस्कृति को, पर धर्म को नहीं पाओगे। तो फिर धर्म है क्या?
पहली बात, धर्म एक निजी घटना है। वह कोई सामाजिक घटना नहीं है। तुम अकेले उतरते हो उसमें, तुम समूह के साथ नहीं उतर सकते उसमें। कैसे तुम किसी दूसरे को साथ लेकर समाधि में उतर सकते हो? तुम्हारे एकदम निकट का भी, तुम्हारा बिलकुल समीपतम भी तुम्हारे साथ न होगा। जब तुम भीतर की ओर बढ़ते हो, तो हर चीज छूट जाएगी. समाज, संस्कृति, सभ्यता, शत्रु, प्रेमी, प्रेमिकाएं, बच्चे, पत्नी, पति-हर चीज छूट जाती है धीरे – धीरे। और एक घड़ी आती है जब तुम भी छूट जाओगे। केवल तभी होती है परम खिलावट, तभी होता है रूपांतरण। क्योंकि तम भी समाज का एक हिस्सा हो, समाज के सदस्य हो : हिंदू हो, कि मुसलमान हो, कि ईसाई हो; भारतीय हो, चीनी हो, जापानी हो। पहले, दूसरे छुट जाएंगे; फिर धीरे - धीरे, अपने लोग छट जाएंगे, ज्यादा निकट के छट जाएंगे। अंततः तुम स्वयं तक आ पहुंचोगे। वह भी समाज का एक हिस्सा है। समाज द्वारा प्रशिक्षित हुआ, समाज द्वारा संस्कारित हुआ तुम्हारा मस्तिष्क, तुम्हारा मन, तुम्हारा अहंकार –समाज द्वारा दिया हुआ। उसे भी मंदिर के बाहर छोड़ देना है। तब तुम अपने परम स्वात में प्रवेश करते हो। कोई नहीं होता वहां, तुम भी नहीं।
धर्म आत्मगत होता है। और धर्म क्रांतिमय होता है। धर्म एकमात्र क्रांति है संसार की। दूसरी सारी क्रांतिया झूठी होती हैं, नकली होती हैं, खेल; वे क्रांतिया नहीं होती। वस्तुत: उन्हीं क्रांतियों के कारण, सच्ची क्रांति सदा स्थगित हो जाती है। वे प्रति -क्रांतिया होती हैं।
एक साम्यवादी आता है और वह कहता है, 'कैसे तुम स्वयं को बदल सकते हो, जब तक कि सारा समाज ही न बदल जाए?' और तुम अनुभव करते हो कि 'ठीक है, कैसे मैं स्वयं को बदल सकता हूँ? कैसे मैं अस्वतंत्र समाज में एक स्वतंत्र जीवन जी सकता हूं?' तर्क तो संगत जान पड़ता है। एक दुखी समाज में तुम सुखी कैसे हो सकते हो? कैसे तुम आनंद पा सकते हो जब कि हर कोई पीड़ित है? साम्यवादी चोट करता है, वह आकर्षित करता है।'हा', तुम कहते, 'जब तक कि सारा समाज सुखी न हो जाए, मैं कैसे सुखी हो सकता हूं?' फिर एक साम्यवादी कहता है, 'आओ पहले तो हम क्रांति लाएं