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पूरब ने इस सत्य को पा लिया था कोई पांच हजार वर्ष पहले उन्होंने व्याख्या की होगी, क्योंकि पूरब की पुरानी पुस्तकों में स्वप्नों की व्याख्या है। अब तक मेरे सामने एक भी ऐसी नई खोज नहीं आई जो पहले से ही कहीं अतीत में पूरब द्वारा न खोज ली गई हो। फ्रायड और जंग तक भी कोई नहीं। यह तो फिर से पुराने क्षेत्र को पुनराविष्कृत करने के जैसा ही है। पूरब में उन्होंने जरूर इसका आविष्कार कर लिया होगा, लेकिन साथ ही उन्होंने खोजा था कि तुम मन की व्याख्या किए चले जा सकते हो और उसका कोई अंत नहीं। वह स्वप्न देखता ही जाता है, वह फिर-फिर नए स्वप्न निर्मित करता चला जाता है।
वस्तुतः कोई मनोविश्लेषण कभी संपूर्ण नहीं होता है। पांच वर्षों के बाद भी वह पूरा नहीं होता। कोई मनोविश्लेषण कभी पूरा हो नहीं सकता, क्योंकि मन नए स्वप्न बुनता चलता है तुम व्याख्या किए जाते हो, वह नए स्वप्न बुनता जाता है। उसके प्रास असीम क्षमता होती है, वह बहुत सृजनात्मक ह है, बहुत कल्पनाशील। वह केवल जीवन के साथ ही समाप्त होता है या ध्यान के साथ ही तुम छलांग लगा लेते हो और तुम अपने से मर जाते हो तब वह खत्म होता है।
मन को मिटने की आवश्यकता है, मनोविश्लेषण की नहीं और यदि मृत्यु संभव है तो विश्लेषण में क्या सार? ये दो नितांत अलग- अलग चीजें हैं और तुम्हें जागरूक रहना होता है। जुंग और फ्रायड भटक गए; प्रतिभाशाली हैं, बड़े बौद्धिक, लेकिन अपना समय खराब कर रहे हैं। और समस्या यह है कि उन्होंने मन के विषय में इतनी सारी चीजें खोजी हैं, लेकिन तो भी स्वयं उसका प्रयोग नहीं कर सकते और यही होनी चाहिए कसौटी।
यदि मैं खोजता हूं ध्यान की कोई विधि और मैं स्वयं ध्यान नहीं कर सकता, तो मेरी खोज क्या अर्थ रख सकती है? लेकिन पूरब और पश्चिम में वह बात भी गलत है। पश्चिम में वे कहते हैं, 'डाक्टर शायद स्वयं को ठीक नहीं कर सकता, लेकिन वह तुम्हें ठीक कर सकता है।' पूरब में हम सदा कह रहे
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हैं, अरे वैद्य, पहले स्वयं को स्वस्थ करो।' वही बात कसौटी बनेगी कि तुम वैसा दूसरों के प्रति कर सकते हो या नहीं। पश्चिम में वे पूछते नहीं, वे वैसी बात पूछते नहीं। पश्चिम में विज्ञान अपने से चलता है। निजी प्रश्न नहीं पूछे जाते हैं, क्योंकि विज्ञान को एक वस्तुगत अध्ययन माना जाता है, आत्मपरकता से उसका कोई संबंध नहीं होता। ऐसा हो सकता है विज्ञान के साथ, लेकिन मनोविज्ञान एकदम वस्तुगत नहीं हो सकता है उसे आत्मगत (सब्जेक्टिव) भी होना पड़ता है, क्योंकि मन आत्मपरक होता है।
पहली बात जो का के विषय में पूछनी चाहिए वह है, क्या आपने अपने को जान लिया है? लेकिन वह सचमुच अहंकारी था। वह सोच रहा था, उसने जान लिया। वह भारत में आने से हिचकता था। केवल एक बार आया वह, और वह हिचकता था किसी संन्यासी के पास जाकर उससे मिलने से । यहां तक कि रमण महर्षि जैसे संत पुरुष से मिलने में भी हिचकता था। उसकी मर्जी न थी, वह नहीं गया। उसके लिए वहा सीखने को क्या था? उसके पास पहले से ही सब मौजूद था। और वह कुछ नहीं