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होशपूर्ण आदमी अनासक्त होता है। वह न तो गृहस्थ होता है और न ही मुनि होता है। वह किसी मठ की ओर नहीं सरक जाता और वह नहीं चला जाता पहाड़ों की ओर। वह रहता है वहीं जहां कि वह होता है—वह तो बस भीतर की ओर मुड़ जाता है। बाहर उसके लिए कोई चुनाव नहीं बनता। वह सुख से चिपकता नहीं और वह नहीं चिपकता दुख से वह न तो सुखवादी होता है और न ही स्वयं को पीड़ा पहुंचाने वाला। वह तो बढ़ता है भीतर की ओर, खेल देखते हुए सुख और दुख का प्रकाश और छाया का दिन और रात का जीवन और मृत्यु का। वह दोनों के पार सरक जाता है। द्वैत मौजूद है वह बढ़ जाता है दोनों के पार; वह अतिक्रमण कर जाता है दोनों का। वह बस हो जाता है सजग और होशपूर्ण और उस होश में पहली बार कुछ घटता है जो कि न तो दुख है और न ही सुख, जो है आनंद आनंद सुख नहीं सुख तो सदा मिलाजुला रहता है दुख से सुख, आनंद दोनों से परे है।
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आनंद न तो दुख है और न ही
और दोनों के पार तुम हो। जो है तुम्हारा स्वभाव, तुम्हारी शुद्धता होने की तुम्हारी स्वच्छ पारदर्शी शुद्धता - एक इंद्रियातीत परम अवस्था । तुम रहते हो संसार में, लेकिन संसार गतिमान नहीं होता है
तुममें।
तुम अनछुए रहते हो, जहां कहीं भी तुम होते हो। तुम हो जाते हो एक कमल ।
आज इतना ही।
प्रवचन 34- मन का मिटना और स्वभाव की पहचान
प्रश्नसार:
1- पश्चिम में चल रहे मन और स्वप्नों के विश्लेषण कार्य को
आप ज्यादा महत्व क्यों नहीं देते?
2- आपने कहा कि सब आरोपित प्रभावों से मुक्त हो जाना है।
तो धार्मिक होने के लिए क्या सभ्यता और संस्कृति से भी मुक्त होना होगा?