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अत: निर्विचार समाधि ही अंतिम चीज नहीं है, वह है उपान्तिम-अतिम से पहले का आखिरी चरण । और वही उपान्तिम हो है लक्ष्य, उसके पार, तिलोपा और लिंची शांति से बैठे होते हैं और घास को अपने से बढ़ने देते हैं। उसके पार तुम रह सकते हो बाजार में, क्योंकि बाजार उतना ही सुंदर है जितने कि मठ। उसके बाद जो कुछ तुम करना चाहते हो, कर सकते हो, पर उसके पहले नहीं तुम अपना काम कर सकते हो। तुम विश्रांत हो सकते हो; खोज समाप्त हुई। उसी विश्रांति में ब्रह्माड के साथ की आंतरिक समस्वरता की वह घड़ी आ पहुंचती है, और दीवार मिट जाती है। क्योंकि वह निर्मित हुई थी तुम्हारे कुछ करने से, तुम करो नहीं, वह मिट जाती है। वह पोषण पाती है तुम्हारे कुछ करने से। जब तुम नहीं करते कुछ, वह मिट जाती है। जब किया खो जाती है, तब तुम पार जा चुके होते हो सारे नियंत्रण के
फिर न कोई जीवन है न कोई मृत्यु, क्योंकि जीवन है तो कर्ता का: मृत्यु है तो कर्ता की। अब तुम बचे ही नहीं, तुम विसर्जित हो चुके तुम विसर्जित हो चुके, नमक के उस टुकड़े की भांति जो समुद्र मैं पड़ कर घुल जाता है। तुम पता नहीं लगा सकते कि कहां चला जाता है वह क्या तुम पता लगा सकते हो नमक के उस टुकड़े का जो कि घुल चुका हो समुद्र में? वह एक हो जाता है समुद्र के साथ। तुम स्वाद पा सकते हो समुद्र का, लेकिन तो भी तुम नमक के टुकड़े को नहीं पा सकते हो ।
इसीलिए लोग जब फिर - फिर बुद्ध से पूछते थे, 'क्या होता होगा जब कोई बुद्ध मरता है? क्या होता है जब एक बुद्ध मरता है?' बुद्ध मौन रहते। उन्होंने कभी उत्तर नहीं दिया इसका यह एक बड़ा बार-बार उठने वाला प्रश्न था - क्या होता है बुद्ध को? बुद्ध मौन रहे, क्योंकि तुम्हें लगता है बुद्ध हैं, उनके अपने लिए, वे अब नहीं रहे। भीतर, वे अब नहीं रहे। अंदर और बाहर एक हो गए हैं; अंश और संपूर्ण एक हो गए हैं, भक्त और भगवान एक हो गए हैं, प्रेमी विलीन हो गया है प्रिय में।
तो क्या बना रहता है? प्रेम बना रहता है। प्रेम करने वाला अब न रहा, प्रेम पाने वाला न रहा, ज्ञाता न रहा, ज्ञात न रहा। केवल समझ बनी रहती है, सहज चैतन्य बना रहता है, बिना किसी केंद्र के। वह अस्तित्व की भांति विशाल होता है गहरा होता है अस्तित्व की भांति, रहस्यपूर्ण होता है अस्तित्व की भांति। लेकिन किया कुछ नहीं जा सकता है।
जब किसी दिन तुम इस बिंदु - स्थल तक आ जाते हो - यदि तुम तीव्रता से खोजो तो आ जाओगे तुम, यदि तीव्रता से खोजो तो पहुंच जाओगे तुम निर्विचार समाधि तक-तब कुछ करने की पुरानी आदत मत ढोए रहना, तब कुछ करने के पुराने ढाचे को लादे मत रहना, तब मत पूछना कि 'कैसे?' तब तो बस विमुक्त रहना और सहज रहना और चीजों को होने देना जो कुछ घटता है स्वीकार करना जो कुछ घटता है उत्सव मनाना उसका लकड़ी काटो, पानी भरी शांत होकर बैठो और घास को बढ़ने दो।'
आज इतना ही