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पतंजलि के योगसूत्र सबसे अधिक व्याख्यायित चीजों में से हैं; वे एकदम भरे हुए हैं महत्वपूर्ण अर्थ से, बहुत गहन रूप से अर्थपूर्ण हैं। लेकिन उन पर व्याख्या करने के लिए पतंजलि कहां मिलते हैं किसा को? कहां मिलता है कोई व्यक्ति जो किसी ढंग से अस्वस्थ न हो? क्योंकि अस्वस्थता रंग चढ़ा देगी, तुम इसमें कुछ नहीं कर सकते। जब तुम व्याख्या करते हो, तब तुम रहते हो तुम्हारी व्याख्या में, तुम्हें रहना ही होता है वहा; व्याख्या करने का कोई और ढंग नहीं है।
मैं वे बातें कहने जा रहा हूं जो कही नहीं गई हैं, और तुम मुझे निरंतर अलग जान सकते हो सारी व्याख्याओं से
इस सत्य को ध्यान में रख लेना, क्योंकि मैं न तो स्व-पीड़क हूं और न ही पर पीड़क में धर्म में स्वयं को उत्पीड़ित करने के लिए नहीं उतरा हूं- बिलकुल विपरीत है बात। वस्तुतः मैं कभी नहीं उतरा धर्म में। मैं तो बस स्वयं आनंदित होता रहा हूं और धर्म घट गया- बिलकुल सहज । यह बात एक निष्पति मात्र रही। मैंने कभी उस तरह से अभ्यास नहीं किए जैसे कि धार्मिक व्यक्ति अभ्यास करते हैं। मैं कभी उस ढंग की खोज में नहीं रहा। मैं तो बस जीया हूं जो कुछ है उसकी गहरी स्वीकृति में मैंने स्वीकार कर लिया अस्तित्व को और स्वयं को, और मैं कभी इस भावदशा में नहीं रहा कि स्वयं को परिवर्तित करूं। अकस्मात, जितना-जितना मैंने स्वीकार किया स्वयं को, उतना ही मैंने स्वीकार किया अस्तित्व को, और एक गहरा मौन, एक आनंद उतर आया मुझ पर उस आनंद में धर्म घटित हुआ मुझको तो साधारण शाब्दिक अर्थों में धार्मिक नहीं हूं मैं यदि तुम कुछ समानांतर खोजना चाहते हो तो तुम्हें उसे धर्म के अतिरिक्त कहीं और ही खोजना होगा।
मुझे उस व्यक्ति के साथ एक गहन घनिष्ठता अनुभव होती है जो दो हजार वर्ष पहले उत्पन्न हुआ था यूनान में उसका नाम था एपीकुरस कोई उसे धार्मिक नहीं मानता। लोग सोचते हैं कि जो सर्वाधिक नास्तिक व्यक्ति हुए वह उनमें से एक था, जो सर्वाधिक भौतिक व्यक्ति हुए उनमें से एक, वह धार्मिक व्यक्ति के एकदम विपरीत था लेकिन वैसी समझ मेरी नहीं एपीकुरस सहज रूप से धार्मिक था। इन शब्दों को जरा खयाल में ले लेना, 'सहज रूप से धार्मिक, धर्म घटा है उसको। इसीलिए लोगों ने उसे नजरअंदाज कर दिया, क्योंकि उसने कभी कोई कोशिश नहीं की। यह उक्ति 'खाओ, पीओ और आनंद मनाओ, आयी है एपीकुरस से और यही दृष्टिकोण बन गया है भौतिकवादी
का।
वस्तुत: एपीकुरस ने एक बहुत ही आडंबररहित सरल जीवन जीया। जितना कभी कोई रह सकता है या रहा होगा, वह उतनी ही सादगी से रहा। महावीर और बुद्ध भी उतने सरल सहज न थे कि एपीकुरस क्योंकि उनकी सादगी परिष्कृत थी, उन्होंने कार्य किया था उस पर उसका अभ्यास किया था। उन्होंने उस पर सोच-विचार किया था और उन्होंने वह सब कुछ गिरा दिया था जो कि अनावश्यक था। वे स्वयं को अनुशासित कर रहे थे-सीधे सरल होने के लिए, और जब कभी अनुशासन मौजूद होता है, तो चली आती है जटिलता । पृष्ठभूमि में संघर्ष बना रहता है, और वह संघर्ष