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सरकती है सूक्ष्मतम परतो तक-वह और- और ज्यादा ऊंचे जाती है, वह संचित होती है, वह एक शिखर बन जाती है, एक ऊर्जा-स्तंभ। अब तुम स्वयं का निरीक्षण करते हो। तुम्हारे विचारों, भावनाओं, अनुभूतियों के सब से अधिक सूक्ष्म तलों पर भी तुम ध्यान कर सकते हो।
.....: स्वाध्याय और ईश्वर के प्रति समर्पण.....:।'
जब कभी तम ध्यान करते हो, तब तम वहां होते ही नहीं हो, तब सहज संयम ले जाता है स्वाध्याय की ओर, स्वाध्याय ले जाता निरहंकारिता की ओर, क्योंकि तुम वहां होते नहीं। जितना ज्यादा तुम जानते हो स्वयं को, उतने कम तुम होते हो। केवल अज्ञानी व्यक्ति भरे रहते हैं अपने से। प्रज्ञावान होते ही नहीं। वे होते हैं एक शून्यता की भांति, वे होते हैं विशाल आकाश की भांति। यदि तुम प्रवेश करते हो बुद्ध में तो तुम कहीं नहीं पाओगे उन्हें। तुम अपरिसीम स्थान तो पाओगे, लेकिन वहां किसी को नहीं पाओगे। यदि तुम मुझमें प्रवेश करो तो तुम मुझे नहीं पाओगे-स्व शून्यता, एक विशाल आकाश, समग्र स्वतंत्रता मौजूद होती है तुम्हारे लिए। तुम मुझसे न मिलोगे, मैं वहां नहीं होता हूं। जब तुम भीतर ज्यादा और ज्यादा होश पा लेते हो, तो तुम कम और कम बने रहते हो। ऐसा सदा एक ही अनुपात में होता है जितने ज्यादा अजागरूक तुम होते हो, उतने ज्यादा तुम मौजूद होते हो। जितने ज्यादा तुम जागरूक होते हो, उतने ही कम तुम स्वयं बने रहते हो। जब तुम संपूर्णतया जागरूक हो जाते हो, तब तुम बचते ही नहीं। संपूर्ण ऊर्जा एक जागरूकता बन गयी होती है, अहंकार के लिए कुछ बचता ही नहीं। और फिर अहंकार छूटता है, जैसे कि सांप सरक जाता है केंचुली के बाहर। अब वह वहां पड़ी हुई एक मृत चमड़ी होती है। कोई भी उसे उठा सकता है। तब घटता है परमात्मा के प्रति समर्पण। तुम नहीं कर सकते परमात्मा के प्रति समर्पण, क्योंकि तुम्हीं होते हो अड़चन।
लोग मेरे पास आते हैं, और वे कहते हैं, 'मैं चाहता हूं समर्पण करना।' वैसा संभव नहीं। कैसे कर सकते हो तुम समर्पण? 'तुम' ही हो गैर-समर्पण। जब तुम नहीं होते, तब समर्पण होता है। जब तुम समाप्त होते हो-समर्पण घटता है। तो जरा ध्यान में रख लेना इसे तुम नहीं कर सकते समर्पण। यह तुम्हारी ओर से किया गया कोई प्रयास नहीं हो सकता है-वह बात असंभव होती है।
तुम केवल एक बात कर सकते हो, जिसे पतंजलि कह रहे हैं आडंबरहीन बनी, सहज-सरल हो जाओ। इतनी ज्यादा ऊर्जा बचती है तब, जो कि सहज ही, स्वयं ही एक जागरूकता बन जाती है और जागरूकता के मौजूद होते ही तुम मौजूद नहीं रहते। अचानक तुम पाते हो कि समर्पण घट गया। अचानक, तुम्हारे अपनी ओर से बिना कुछ किए ही: तुम ने नहीं किया होता है कुछ और समर्पण घटित हो जाता है। परमात्मा के प्रति समर्पण करना तुम्हारे भीतर की गैर-अहंकार की अवस्था है। यदि प्रयास होता है तो वह समर्पण नहीं होता है।
समर्पण एक बोध है। जब तुम जागरूक होते हो और बोध की ज्योति-शिखा ऊंची प्रज्वलित हो रही होती है, अचानक तुम जान लेते हो कि अंधकार वहां नहीं है। तुम समर्पित हो गए हो। वह एक