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अच्छा होता है, वे तुम्हारी मदद कर रहे होते हैं। लेकिन पांच वर्ष के अभ्यास द्वारा तो तुम सारी बात ही चूक जाओगे। नग्नता निर्दोष होनी चाहिए किसी बालक की भांति ही। नग्नता एक समझ होनी चाहिए, न कि कोई अभ्यास अभ्यास द्वारा, तुम समझ के लिए एक विकल्प ढूंढ रहे होते हो। निर्दोषता मन की चीज नहीं, वह तुम्हारी गणना का, तुम्हारी बुद्धि का हिस्सा नहीं। निर्दोषता हृदय की एक समझ है।'
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सहजता का सादगी का अभ्यास नहीं किया जा सकता है तुम्हें केवल ध्यान से देखना है जीवन को और समझ लेना है कि जितने ज्यादा तुम जटिल हो जाते हो उतने कम संवेदनशील होते जाते हो तुम और जितने कम संवेदनशील होते हो तुम, उतने ही दूर होते हो तुम परमात्मा से तुम जितने ज्यादा संवेदनशील होते हो, उतने तुम और और निकट होते हो। एक दिन आता है जब तुम तुम्हारे अस्तित्व की मूल जड़ों के प्रति संवेदनशील हो जाते हो, अचानक तुम फिर बचते ही नहीं, तुम होते हो मात्र एक संवेदना, एक संवेदनशीलता तुम अब नहीं रहते, तुम होते हो केवल एक जागरूकता और तब हर चीज सुंदर होती है, हर चीज जीवंत होती है, कुछ भी मृत नहीं होता ।
हर चीज चेतनापूर्ण है; कोई चीज मृत नहीं हर चीज चेतन है, कुछ अचेतन नहीं। तुम्हारी संवेदनशीलता के साथ ही, संसार बदल जाता है। अंतिम घड़ी में जब संवेदनशीलता अपनी संपूर्णता तक पहुंचती है, अपने परम शिखर पर, तो संसार खो जाता है, वहां होता है परमात्मा। वस्तुत: परमात्मा को नहीं पाना है, संवेदनशीलता को पा लेना है। इतनी समग्रता से संवेदनशील हो जाओ कि न छूटे, कोई जबरदस्ती का नियंत्रण नहीं, और अचानक परमात्मा वहा मौजूद होता है से ही है वहां, केवल तुम ही संवेदनशील न थे।
कुछ भी पीछे परमात्मा सदा
मेरे देखे, सहज-संयम है सरल सहज जीवन, समझ भरा एक जीवन तुम्हें झोपड़ी में जाकर रहने की कोई जरूरत नहीं, तुम्हें नग्न हो जाने की कोई जरूरत नहीं। तुम जीवन में सरलता सहजता से रह सकते हो, एक समझ के साथ। गरीबी मदद न देगी बल्कि समझ देगी मदद। तुम गरीबी लाद सकते हो तुम्हारे ऊपर, तुम मैले-कुचैले बन सकते हो, लेकिन उससे कोई मदद न मिलेगी ।
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पश्चिम में अब हिप्पियों के साथ और उसी तरह के और लोगों के साथ यही हो रहा है। वे वही गलती कर रहे हैं जो भारत एक लंबे समय से करता चला आ रहा है। अतीत में भारत परिचित रहा है हर प्रकार के हिप्पियों से जितने गंदे से गंदे जीवन संभव हैं उन्हें जीया है उन्होंने। केवल तप के नाम पर उन्होंने स्नान नहीं किए क्योंकि उन्होंने महसूस किया, 'क्यों फिक्र करनी और क्यों सजाना शरीर को?' क्या तुम जानते हो कि जैन मुनि नहाते नहीं हैं? तुम बैठ नहीं सकते हो उनके पास, उनके पास से बदबू आती है। वे अपने दात साफ नहीं करते। तुम उनसे बात नहीं कर सकते, दुर्गंध आती है, बदबू उठती है उनके मुंह से। और इसे तप-संयम माना जाता है, क्योंकि वे कहते हैं, 'नहाना या शरीर साफ रखना भी भौतिकवादी होना है तब तुम बहुत ज्यादा, जुड़ जाते हो शरीर से, तो क्यों चिंता करनी?"