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रहने में। ऊर्जाएं गुजर चुकी होती है विश्राम-अवधि में से, जिससे कि वे सुबह फिर ज्यादा जीवंत होती हैं।
यही बात घटेगी ध्यान में कुछ पलों के लिए तुम संपूर्णतया जागरूक होते हो, शिखर पर होते हो, और कुछ पलों के लिए तुम होते हो घाटी में, विश्राम कर रहे होते हो-जागरूकता समाप्त हो चुकी ' होती है, तुम भूल चुके होते हो। पर क्या गलत है इसमें? यह सीधी-साफ बात है। अजागरूकता द्वारा, जागरूकता फिर से उदित होगी, ताजी, युवा, और यही चलता चला जाएगा। यदि तुम दोनों से आनंदित हो सकते हो, तो तुम तीसरे बन जाते हो, और यही सार-बिंदु है समझने का।
यदि तुम दोनों से आनंदित हो सकते हो, तो इसका मतलब होता है कि तुम न तो जागरूकता हो और न ही अजागरूकता हो। तुम एक वह हो जो दोनों से आनंदित होता है। पार का कुछ प्रवेश करता है। वस्तुत: यही है असली साक्षी। प्रसन्नता से तुम आनंदित होते-क्या गलत है इसमें? जब प्रसन्नता चली जाती है और तुम उदास हो जाते हो, तो क्या गलत है उदासी में? प्रसन्न होओ उससे। एक बार तुम सक्षम हो जाते हो उदासी का आनंद मनाने में, तब तुम दोनों में से कुछ नहीं होते।
और मैं कहता हूं तुमसे, यदि तुम आनंद मनाते हो उदासी का, तो उसके अपने सौंदर्य होते हैं। प्रसन्नता थोड़ी सतही होती है; उदासी बड़ी गहन होती है, उसकी अपनी एक गहराई होती है। जो व्यक्ति कभी उदास नहीं रहा होता, वह सतही होगा, सतह पर ही होगा। उदासी है अंधेरी रात की भांति-बहुत गहन। अंधकार का अपना एक मौन होता है और उदासी का भी। प्रसन्नता फूटती है बुदबुदाती है; उसमें एक ध्वनि होती है, वह होती है पर्वतो की नदी की भांति, ध्वनि निर्मित हो जाती है। लेकिन पर्वतो में नदी कभी नहीं हो सकती बहुत गहरी। वह सदा उथली होती है। जब नदी पहुंचती है मैदान में, वह हो जाती है गहरी, पर ध्वनि थम जाती है। वह चलती है, जैसे कि न चल रही हो। उदासी में एक गहराई होती है।
क्यों बनानी अड़चन? जब प्रसन्न होते हो, तो प्रसन्न रहो, आनंद मनाओ उसका। तादात्म्य मत बनाओ उसके साथ। जब मैं कहता हूं प्रसन्न रहो तो मेरा मतलब होता आनंदित होओ उससे। उसे होने दो एक आबोहवा, जो गतिमय होगी और परिवर्तनशील होगी। सुबह परिवर्तित हो जाती है दोपहर में, दोपहर परिवर्तित हो जाती है सांझ में और फिर आती है रात्रि। प्रसन्नता को तुम्हारे चारों ओर की एक आबोहवा बनने दो। आनंद मनाओ उसका, और फिर जब उदासी आती है, तो उससे भी आनंदित होना। जो कुछ भी हो अवस्था मैं तो तुम्हें सिखाता हूं आनंद मनाना। शांत होकर बैठ जाना और आनंदित होना उदासी से, और अचानक उदासी फिर उदासी नहीं रहती; वह बन चुकी होती है मौन शांतिमय पल, अपने में सौंदर्यपूर्ण। कुछ गलत नहीं होता उसमें।