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मेरे देखे, धर्म की समग्र रूप से एक अलग ही गुणवत्ता होती है। ऐसा नहीं है कि तुम जीवन में असफल हो गए हो और इसलिए तुम धर्म की ओर चले आए हो, बल्कि इसलिए आए हो, क्योंकि तुम जीवन के द्वारा परिपक्व हो गए हो। तुम्हारी असफलताएं भी जीवन के कारण नहीं हैं; असफलताएं हैं तुम्हारी इच्छाओं के कारण। तुम हताश इसलिए नहीं हुए कि जीवन हताशा देने वाला है, बल्कि इसलिए कि तुमने बहत ज्यादा आशा बनाई थी। जीवन तो संदर होता है; कष्ट तो तुम्हारे मन ने निर्मित कर लिया। तुम्हारी महत्वाकांक्षा बहुत ज्यादा थी। यह सुंदर और विशाल जीवन भी उसे पूरा नहीं कर सकता था।
साधारण धार्मिक व्यक्ति संसार को त्याग देता है; वास्तविक धार्मिक व्यक्ति महत्वाकांक्षा छोड़ देता है, आशा छोड़ देता है, कल्पना छोड़ देता है। अनुभव द्वारा यह जान कर कि हर आशा उस स्थल तक आ पहुंचती है, जहां यह बन जाती है आशा विहीनता, और हर स्वप्न उस स्थल पर आ पहुंचता है, जहां यह बन जाता है एक दुखस्वप्न, और हर इच्छा उस बिंदु तक आ पहुंचती है, जहां असंतुष्टि के सिवाय तुममें और कुछ नहीं बचता है? अनुभव द्वारा यह जान कर व्यक्ति पक जाता है, प्रौढ़ हो जाता है। व्यक्ति गिरा देता है महत्वाकांक्षा की। या, इस विकास के कारण, महत्वाकांक्षा गिर जाती है अपने से ही। तब व्यक्ति धार्मिक हो जाता है।
ऐसा नहीं है कि वह संसार को त्याग देता है। संसार तो सुंदर है! वहां त्यागने को कुछ है नहीं। वह
ग देता है सारी अपेक्षाएं। और जब कोई अपेक्षा नहीं होती, तो हताशा कैसे हो सकती है? और जब कोई माग नहीं होती, तो हताशा कैसे हो सकती है? और जब कोई माग नहीं होती, तो अतृप्ति कैसे हो सकती है? और जब कोई महत्वाकाक्षा नहीं होती, तो कैसे आ पहुंच सकता है कोई दुखस्वप्न? व्यक्ति एकदम बन जाता है मुक्त और स्वाभाविक। व्यक्ति वर्तमान क्षण को जीता है और कल की फिक्र नहीं करता है। व्यक्ति इसी क्षण को जीता है और उसे इतने संपूर्ण रूप से जीता है, क्योंकि भविष्य में कहीं कोई आशा और इच्छा नहीं होती। व्यक्ति अपना संपूर्ण अस्तित्व ले आता है इस क्षण तक, और तब संपूर्ण जीवन हो जाता है रूपांतरित। वह एक आनंद होता है, वह एक त्यौहार होता है, वह एक उत्सव होता है। फिर तुम नृत्य कर सकते हो और तुम हंस सकते हो और गा सकते हो, और मेरे देखे ऐसी ही होनी चाहिए धार्मिक-चेतना-स्व नृत्य-मग्न चेतना। यह चेतना बच्चों की चेतना जैसी ज्यादा होती है, मरी हुई लाश की चेतना जैसी कम होती है। तुम्हारे चर्च, तुम्हारे मंदिर, तुम्हारी मस्जिदें; कब्रों की भांति ही हैं-बहुत ज्यादा गंभीरता है।
तो निस्संदेह बहुत लोग हैं मेरे आसपास, जो गंभीर हैं, उन्होंने मुझे बिलकुल ही नहीं समझा है। हो सकता है वे अपने मन प्रक्षेपित कर रहे होंगे मुझ पर, जो कुछ मैं कहता हूं वे उसकी व्याख्या कर रहे होंगे उनके अपने विचारों के अनुसार, लेकिन मुझे समझा नहीं है उन्होंने। वे गलत लोग हैं। या तो उन्हें बदलना होगा या उन्हें चले जाना होगा। अंततः केवल वे ही व्यक्ति रहेंगे मेरे साथ, जो समग्र रूप से जीवन का उत्सव मना सकते हैं, बिना किसी शिकायत के, बिना किसी दुर्भाव के। दूसरे चले