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पर, तुम्हें निर्भर करना पड़ेगा और झूठी बातो पर। धीरे- धीरे झूठी बातो की एक भीड़ इकट्ठी हो जाती है तुम्हारे आसपास। तुम्हारा दम घुटने लगता है तुम्हारे अपने झूठे चेहरों के द्वारा और फिर तुम हो जाते हों उदास। तब जिंदगी झंझट की भांति जान पड़ती है। तब तुम उससे आनंदित नहीं हो सकते, क्योंकि तुमने तो सारा सौंदर्य ही नष्ट कर दिया होता है उसका। तुम्हारे अपने झूठे मन के अतिरिक्त अस्तित्व में कोई और चीज असुंदर नहीं है, हर चीज सुंदर है।
ईमानदार बनो, प्रामाणिक बनो और सच्चे बनो, और जो कुछ करो, तुम वह प्रेमवश ही करो, अन्यथा मत करो उसे। यदि तुम संन्यासी होना चाहते हो, तो प्रेमवश ही होना; अन्यथा, मत लगाना छलांगप्रतीक्षा करना, सही घड़ी को आने देना, लेकिन इस बारे में गंभीर मत हो जाना। ऐसा कुछ नहीं, गंभीरता जैसा कुछ नहीं।
मेरे देखे, गंभीरता एक रोग है, वह मामूली औसत मन जो जीवन में असफल हुआ है, उसका रोग है। वह असफल हुआ है क्योंकि वह औसत है। संन्यास तुम्हारी प्रौढ़ता का चरम शिखर होना चाहिए; तुम्हारी असफलताओं, सफलताओं का, हर वह चीज जो तुमने देखी है और जो है, और हर वह चीज जिसके द्वारा तुम विकसित हुए हो उसका शिखर, चरम बिंदु। अब तुम ज्यादा समझ रखते हो और जब तुम ज्यादा समझते हो तो तुम ज्यादा आनंदित हो सकते हो।
जीसस धार्मिक हैं। ईसाई धार्मिक नहीं हैं। जीसस उत्सवमय हो सकते हैं, ईसाई नहीं हो सकते। चर्च में तुम्हें जाना होता है एक बड़ा गंभीर चेहरा, उदास चेहरा लेकर। क्यों? क्योंकि क्रॉस एक प्रतीक बन गया है धर्म का। क्रॉस को प्रतीक नहीं बनना चाहिए; मृत्यु से संबद्धता नहीं होनी चाहिए। एक धार्मिक व्यक्ति इतने गहरे रूप से जीता है कि वह किसी मृत्यु को नहीं जानता। मृत्यु को जानने के लिए ऊर्जा बचती ही नहीं। कोई वहां होता नहीं मृत्यु को जानने के लिए। जब तुम इतने गहरे रूप से जीते
न को, तो मत्य मिट जाती है। मत्य केवल तभी अस्तित्व रखती है, यदि तम सतह पर जीते हो। जब तुम गहरे रूप से जीते हो, तो मृत्यु भी जीवन बन जाती है। जब तुम जीते हो सतह पर, तो जीवन भी मृत्यु बन जाता है। क्रॉस नहीं होना चाहिए: प्रतीक धर्म का।
भारत में हमने क्रॉस जैसी चीजों को कभी नहीं ढाला है प्रतीकों में। हमारे पास कृष्ण की बांसुरी है या शिव का नृत्य है प्रतीकों के रूप में। यदि कभी तुम समझना चाहते हो कि धार्मिक चेतना को किस तरह विकसित होना चाहिए, तो कोशिश करना कृष्ण को समझने की। वे आनंदपूर्ण हैं, उत्सवपूर्ण हैं, नृत्यमय हैं। अपने होंठों पर बांसुरी और गान लिए वे प्रेमी हैं जीवन के। क्राइस्ट सचमुच ही पुरुष थे कृष्ण जैसे। वस्तुत: यह शब्द 'क्राइस्ट' आया कृष्ण से। जीसस है उनका नाम: जीसस कृष्ण, जीसस क्राइस्ट। कृष्ण के बहुत रूप हैं। भारत में, बंगाल में, उनका एक रूप है जो है 'कृष्टो'। कृष्टो से ग्रीक में वह बन जाता है 'कृष्टोस' और वहां से वह बढ़ता है और बन जाता है 'क्राइस्ट'।