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से मुक्त हो जाती है जिसके साथ तुम जीए होते हो। वह बाहर आ सकती है, वह भीतर जा सकती है, उसके मार्ग पर कोई रुकावट नहीं है।
अब प्रत्यक्ष ज्ञान संभव हो जाता है। प्रत्यक्ष ज्ञान है सम्यक अनुभूति। अब तुम सीधे देख सकते हो। ज्ञान के स्रोत और तुम्हारे बीच बिना किसी संदेशवाहक के तुम सीधे देख सकते हो। यह एक बड़ी जबरदस्त घटना होती है, जब तम्हारी चेतना बाहर आ जाती है और एक फल को देखती है। तम उसकी कल्पना नहीं: कर सकते, क्योंकि वह कल्पना का हिस्सा ही नहीं। तुम विश्वास नहीं कर सकते कि क्या घटता है! जब चेतना सीधे ही फूल को देख सकती है, तो पहली बार फूल को जाना जाता है, और केवल फूल को ही नहीं, फूल के द्वारा संपूर्ण अस्तित्व को जान लिया जाता है। एक छोटे –से पत्थर में समग्र अस्तित्व छिपा हुआ है; हवा में नाचते हुए एक छोटे –से पत्ते में, पूरी सृष्टि नृत्य करती है। सड़क के किनारे के 'छोटे –से फूल में, संपूर्ण सृष्टि की मुसकान होती है।
जब तुम अपनी इंद्रियों की कैद के बाहर आते हो स्नायु -तंत्र के बाहर, मस्तिष्क के, मन के, परतदर-परत दीवारों के बाहर, तो अचानक व्यक्ति तिरोहित हो जाते हैं। लाखों आकारों में एक बड़ी विशाल ऊर्जा है, और प्रत्येक आकार संकेत कर रहा है निराकार की तरफ, प्रत्येक आकार पिघल रहा है
और घुलमिल रहा है दूसरे आकार में-स्व विशाल सागर है निराकार सौंदर्य का, सत्य का, शुभ का। हिंदू उसे कहते हैं, सत्यं शिवं सुंदर और सत् –चित् – आनंद : जो कि है, जो कि सुंदर है, जो कि शुभ है; जो है, जो चैतन्य है, जो आनंदमय है। यह एक सीधा बोध :'होता है, अपरोक्षानुभूति, प्रत्यक्ष ज्ञान।
अन्यथा, तुम्हारा सारा ज्ञान अप्रत्यक्ष होता है। वह निर्भर करता है संदेशवाहकों पर जो कि बहुत
वसनीय नहीं होते -हो नहीं सकते। उनका स्वभाव ही भरोसे का नहीं होता है। क्यों? तुम्हारा हाथ किसी चीज का स्पर्श करता है, हाथ एक अचेतन चीज है। बिलकुल प्रारंभ से ही तुम्हारे मन का अचेतन भाग संदेश ग्रहण करता है। चेतना तो पीछे छिपी है, लेकिन द्वार पर एक जड़ नासमझ बैठा है, और वह नासमझ संदेश ले लेता है। स्वागत कक्ष में एक जड़ नासमझ बैठा है! हाथ को बोध नहीं और हाथ छू लेता है किसी चीज को और ग्रहण कर लेता है संदेश को। अब स्नायुओं द्वारा संदेश यात्रा करता है। स्नायु बोधमय नहीं होते हैं, उनके पास कोई समझ नहीं होती है। तो अब, एक नासमझ से दूसरे नासमझ तक चला जाता है संदेश। पहले जड़ नासमझ से दूसरे जड़ नासमझ तक चला जाता है संदेश। पहले जड़ नासमझ से दूसरे जड़ नासमझ तक जरूर बहुत कुछ बदल जाता है।
पहली बात: कोई जड़ नासमझ सौ प्रतिशत सच नहीं हो सकता है, क्योंकि वह समझ नहीं सकता है। समझ वहा होती ही नहीं। हाथ बुद्धिरहित होता है, बुद्धिविहीन। वह कार्य को यांत्रिक रूप से वहन करता है, यंत्र -मानव की भांति। संदेश पहुंचा दिया जाता है, लेकिन बहुत कुछ तो पहले से ही बदल जाता है। स्नायु उसे मस्तिष्क तक ले जाते हैं और मस्तिष्क उसका अर्थ करता है। और मस्तिष्क की भी कोई बहुत समझ नहीं है क्योंकि मस्तिष्क शरीर का ही हिस्सा होता है; वह हाथ का दूसरा छोर होता है।