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डाक्टरों को बुलाया गया; शल्य-चिकित्सकों ने आपस में सलाह-मशविरा किया। यह तो बिलकुल ही बेतुकी बात थी। मन कोई चालाकी चल रहा था। लेकिन जो घट रहा था उसे उन्होंने समझने की कोशिश की। तब सारे शरीर का एक्स-रे फोटो लिया, और जिस बात तक वे पहुंचे, वह यह थी : जो नाड़ी पैर के अंगूठे के दर्द का संदेश वहन करती रही थी वह अभी भी उसे वहन कर रही थी। वह उसी ढंग से कांप रही थी, जैसे कि उसे तब कापना चाहिए, यदि वहा अंगूठा होता और उसमें दर्द होता।
और जब नाड़ी पहुंचा देती है संदेश तो निस्संदेह मस्तिष्क को उस संकेत का अर्थ करना होता है। मस्तिष्क के पास कोई तरीका नहीं है इसकी जांच करने का कि नाड़ी सही संदेश वहन कर रही है या गलत संदेश, वास्तविक संदेश, या कि अवास्तविक संदेश। मस्तिष्क बाहर नहीं आ सकता और नाड़ी को नियंत्रित नहीं कर सकता। मस्तिष्क को निर्भर रहना पड़ता है नाड़ी पर, और मस्तिष्क उस संकेत का अर्थ करता है मन के सामने। तो अब मन के पास कोई तरीका नहीं होता मस्तिष्क को जांचने का। व्यक्ति को तो बस विश्वास कर लेना होता है नल पर। और मन ज्ञान को पहुंचाता है चेतना तक। अब चेतना पीड़ित होती है उस पैर के अंगूठे के लिए जो विदयमान ही नहीं होता।
इसे ही हिंदू कहते हैं 'माया'|'संसार अस्तित्व नहीं रखता है', हिंदू कहते हैं, और तुम भयंकर रूप से पीड़ा भोग रहे हो। उस चीज के लिए पीड़ित हो रहे हो, जिसका कि अस्तित्व ही नहीं!' ऐसे ही क्रियान्वित होती है ज्ञान की यंत्र-प्रक्रिया। इस प्रक्रिया में यह बहुत कठिन होता है कहीं जांच करना जब तक कि तुम स्वयं में से बाहर न आ सकी। मन ऐसा नहीं कर सकता, क्योंकि मन शरीर के बाहर अस्तित्व नहीं रख सकता है। उसे मस्तिष्क पर निर्भर रहना पड़ता है, वह मस्तिष्क में ही बद्धमूल होता है। मस्तिष्क ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि मस्तिष्क की जड़ें जुड़ी होती हैं पूरे स्नायुतंत्र से। वह बाहर नहीं आ सकता। केवल एक जगह संभावना होती है जांचने-परखने की, और वह होती है चैतन्य में।
चैतन्य शरीर में बद्धमूल नहीं है; शरीर तो केवल एक नाव है। जैसे कि तुम अपने घर के बाहर आते हो और भीतर जाते हो, इसी तरह चैतन्य घर के बाहर आ सकता है और भीतर जा सकता है। केवल चैतन्य इस सारे रचना-तंत्रों के बाहर जा सकता है और चीजों को जो घट रहा है, उसे देख-जान
सकता है।
निर्विचार समाधि में ऐसा घटता है। विचार समाप्त हो जाते हैं। मन और चेतना के बीच का संपर्क कट जाता है, क्योंकि विचार ही होता है संपर्क। विचार के बगैर तुम्हारे पास कोई मन नहीं होता, और जब तुम्हारे पास कोई मन नहीं होता, तो मस्तिष्क के साथ संपर्क टूट जाता है। जब तुम्हारे पास मन नहीं होता, और मस्तिष्क के साथ का संपर्क टूट चुका होता है, तो स्नायु-तंत्र के साथ संपर्क भी टूट चुका होता है। तुम्हारी चेतना अब बाहर और भीतर प्रवाहित हो सकती है। सारे द्वार खुले होते हैं। निर्विचार समाधि में, जब सारे विचार समाप्त हो जाते हैं, तब चेतना गतिमान होने और प्रवाहित होने के लिए स्वतंत्र होती है। वह बिना जड़ों के, गृहविहीन बादल की भांति हो जाती है, वह उस रचनातंत्र