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बीज - विहीन समाधि में, निर्विचार समाधि में, जब केवल चेतना अस्तित्व रखती है अपनी परम शुद्धता में, तो पहली बार तुम्हें सारी बात समझ में आती है. कि तुम कभी नहीं रहे कर्ता तुमने कभी एक भी चीज नहीं चाही चाहने की कोई जरूरत नहीं क्योंकि हर चीज तुममें है। तुम आत्यंतिक सत्य हो । यह तुम्हारी मूढता थी कुछ चाहना, और क्योंकि तुमने चाहा तुम भिखारी हो गए। साधारणतया तुम उलटे ढंग से सोचते हो तुम सोचते कि तुम आकांक्षा करते हो क्योंकि तुम भिखारी हो। लेकिन निर्बीज समाधि में यह समझ अवतरित होती है कि यह तो बिलकुल दूसरी ही बात है क्योंकि तुम आकांक्षा करते हो, तो तुम भिखारी हो। तुम संपूर्णतया सिर के बल खड़े होते हो, उलटे खड़े होते हो। यदि आकांक्षा तिरोहित हो जाती है, तो तुम एकदम अकस्मात सम्राट हो जाते हो। भिखारी तो कभी वहां था ही नहीं वह था तो केवल इसीलिए कि तुम आकांक्षा कर रहे थे। वह था क्योंकि तुम बहुत ज्यादा सोच रहे थे विषय को लेकर। तुम इतने ज्यादा आविष्ट थे विषय और विषयों द्वारा, कि तुम्हारे पास समय न था और कोई सुअवसर न था और कोई स्थान न था भीतर देखने को। तुम बिलकुल भूल ही गए थे कि भीतर कौन है। भीतर है वह परम दिव्य, और भीतर है स्वयं
परमात्मा ।
इसीलिए हिंदू कहे चले जाते हैं, 'अहं ब्रह्मास्मि ।' वे कहते हैं, 'मैं हूं अंतिम सत्य' लेकिन मात्र ऐसा कहने से उसे नहीं पाया जा सकता है। व्यक्ति को पहुंचना होता है निर्विचार समाधि तक केवल तभी उपनिषद सत्य हो जाते हैं, केवल तभी सत्य हो जाते हैं बुद्ध - पुरुष । तुम हो जाते हो साक्षी । तुम कहते, ही वे ठीक है, क्योंकि अब यह बात तुम्हारा अपना अनुभव बन चुकी होती है।
समाधि की निर्विचार अवस्था की परम शुद्धता उपलब्ध होने पर प्रकट होता है आध्यात्मिक प्रसाद ।
'निर्विचार वैशारदये अध्यात्म प्रसादः ।'
यह शब्द 'प्रसाद' बहुत - बहुत सुंदर है जब कोई स्वयं की सत्ता में स्थिर हो जाता है, घर आ जाता है, अकस्मात वहां चला आता है आशीष, एक प्रसाद। वह सब जिसे किसी ने सदा से चाहा होता है अकस्मात पूरा हो जाता है। जो तुम होना चाहते थे, अचानक तुम हो जाते हो, और तुमने कुछ किया नहीं होता उसके लिए, तुमने कोई प्रयास नहीं किया होता उसके लिए ! निर्विचार समाधि में व्यक्ति जान लेता है कि अपने सच्चे स्वभाव में, गहनतम स्वभाव में व्यक्ति सदा ही संपूरित होता है। वहां होता है एक संपूरित नृत्य !
'निर्विचार समाधि की परम शुद्धता उपलब्ध होने पर.........
और परम शुद्धता होती क्या है? – जहां अ - विचार का विचार तक भी विद्यमान नहीं होता है। वही छै परम परिशुद्धता जहां दर्पण बस दर्पण ही होता है, उसमें कुछ प्रतिबिंबित नहीं हो रहा होता