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क्योंकि प्रतिबिंब भी एक अशुद्धता ही होती है। वस्तुतः वह दर्पण के साथ कुछ जोड़ता नहीं, पर फिर भी दर्पण परिशुद्ध नहीं रहता। प्रतिबिंब कुछ बिगाड़ नहीं सकता दर्पण का वह कोई पदचिह्न, कोई अवशेष न छोड़ेगा, वह कोई छाप न छोड़ेगा दर्पण पर, लेकिन जब वह होता है तो दर्पण भरा रहता है किसी दूसरी ही चीज से कोई बहारी चीज वहां होती है? दर्पण अपनी परम शुद्धता में, अपनी परम एकांतिकता में नहीं होता दर्पण निर्दोष न रहा कोई चीज मौजूद है वहां।
जब मन संपूर्णतया जा चुका होता है और वहां अमन भी नहीं होता किसी भी, कोई भी चीज का विचार मात्र भी वहां नहीं होता; इतने आनंदपूर्ण क्षण में होने की तुम्हारी अवस्था का विचार भी नहीं होता, जब तुम समाधि की निर्विचार अवस्था की इस परम शुद्धता में ही होते हो, तो प्रकट होता है आध्यात्मिक प्रसाद बहुत सी चीजें घटती हैं।
ऐसा ही घटा था सुभूति को : अचानक फूलों की वर्षा हो गई बिना किसी ज्ञात कारण के ही, और उसने कुछ नहीं किया था। यदि वह होता, तो फूलों की वर्षा न हुई होती। वह तो बस विस्मरण से भरा था किसी भी चीज के लिए वह इतना ज्यादा अवस्थित था स्वयं में चेतना की सतह पर कोई छोटी-सी लहर तक न उठी थी, दर्पण में एक भी प्रतिबिंब न था, आकाश में कोई श्वेत बादल तक न
था
- कुछ नहीं। बरस गए फूल.. ।
ऐसा ही कहते हैं पतंजलि, 'निर्विचार वैशारद्ये अध्यात्म प्रसाद: ।' अचानक उतर आता है प्रसाद वास्तव में, वह उतरता ही रहा है सदा से
तुम सजग नहीं हो, बिलकुल अभी फूल बरस रहे हैं तुम पर, लेकिन तुम खाली नहीं हो अतः तुम नहीं देख सकते हो उन्हें। केवल शून्यता की आंखों से वे दिखाई पड़ सकते हैं, क्योंकि वे इस संसार के फूल नहीं हैं, वे फूल हैं किसी दूसरे ही संसार के
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वे सब जो उपलब्ध हुए हैं इस बिंदु पर सहमत हैं कि उस अंतिम उपलब्धि में व्यक्ति अनुभव करता है कि बिलकुल किसी कारण के बिना ही, हर चीज परिपूरित होती है। व्यक्ति इतना आनंदि अनुभव करता है, और उसने कुछ किया नहीं होता है इसके लिए तुमने कुछ तो किया ही होता है ध्यान के बारे में, तुमने कुछ न कुछ तो किया ही होता है चिंतन-मनन के बारे में; तुमने कुछ तो किया ही होता है इस बारे में कि विषय से कैसे न चिपका जाए; तुमने कुछ न कुछ किया ही होता है इन दिशाओं में, लेकिन तुमने कुछ नहीं किया होता उस अचानक प्रसाद के तुम पर बरस जाने के लिए। तुमने कुछ नहीं किया होता - तुम्हारी इच्छाओं को पूरा करने के लिए।
विषय के साथ दुख बना रहता है, आकांक्षा के साथ दुखी मन बना रहता है; मांग के साथ, शिकायती मन के साथ, नरक बना रहता है। अचानक जब विषय जा चुका होता है, नरक भी मिट चुका होता है और स्वर्ग बरस रहा होता है तुम पर यह घड़ी होती है प्रसाद की तुम नहीं कह सकते कि तुमने उपलब्ध किया इसे तुम केवल यही कह सकते हो कि तुमने कुछ नहीं किया। यही अर्थ है प्रसाद का