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सकते जो कि बाहरी व्यक्ति होते हैं। वे अलग भाषा में बात करते हैं। उनके पास अलग भाषा होती है। यदि तुम मुझे 'भगवान' कहते हो, तो यह बात उनकी समझ में नहीं आ सकती जो कि बाहरी व्यक्ति हैं। वे तो हंस ही पड़ेंगे, उनके लिए मैं भगवान नहीं हूं और बिलकुल सही हैं वे; और तुम भी बिलकुल सही हो। यदि तुमने मेरे साथ किसी तालमेल की अनुभूति पायी है, तो उस तालमेल में भगवान हो जाता हूं मैं तुम्हारे लिए। यह एक प्रेम का संबंध होता है और तालमेल में गहनतम होता
दूसरा प्रश्न:
कुछ भक्ति संप्रदाय प्रेम की उच्चतर अवस्थाओं का ध्यान करना सिखाते है- पहले प्रेम करो एक साधारण व्यक्ति से फिर गुरु से फिर परमात्मा से वगैरह-वगैरह। क्या आप इस विधि के विषय में हमें कुछ बताएंगे।
प्रम कोई विधि नहीं। यही है दूसरी सारी विधियों और भक्तिमार्ग के बीच का अंतर। भक्ति के मार्ग
में कोई विधि नहीं होती। योग के पास विधियां हैं, भक्ति के पास एक भी नहीं। प्रेम कोई विधि नहीं है। इसे विधि कहना इसे गलत नाम देना है।
प्रेम सहज-स्वाभाविक होता है। वह पहले से ही वहा होता है तुम्हारे हृदय में फूट पड़ने को तैयार। एक ही चीज करनी होती है; वह यह कि उसे होने देना होता है, उगने देना होता है। तुम खड़ी कर रहे होते हो सब प्रकार की रुकावटें और बाधाएं। तुम उसे आने नहीं दे रहे होते। वह मौजूद ही है वहां, तुम जरा थोड़ा शांत होओ और वह आ पहुंचेगा, वह फूट पड़ेगा, वह खिल जाएगा। और जब वह खिलता है एक साधारण मनुष्य के लिए, तो तुरंत वह साधारण मनुष्य असाधारण हो जाता है।
प्रेम हर किसी को असाधारण बना देता है। वह ऐसी कीमिया है। एक साधारण स्त्री अचानक रूपांतरित हो जाती है जब तुम उसे प्रेम करते हो। वह फिर साधारण न रही; वह हो जाती है ऐसी सबसे अधिक असाधारण स्त्री जैसी कि कभी हुई न होगी। ऐसा नहीं है कि तुम अंधे होते हो, जैसा कि दूसरे कहते होंगे। वस्तुत: तुमने देख लिया होता है उस असाधारणता को जो कि छिपी रहती है प्रत्येक साधारणता में।
प्रेम ही है एकमात्र आंख, एकमात्र दृष्टि, एकमात्र स्पष्टता। तुम उस साधारण स्त्री में देख लेते हो संपूर्ण स्त्रीत्व को -अतीत, वर्तमान, भविष्य की सारी स्त्रियां एक साथ मिल जाती हैं। जब तुम प्रेम