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जारी रखा कहना कि उसकी हालत सुधर रही है, उसमें सुधार हो रहा है। और मैं पूछा करता मुल्ला नसरुद्दीन से, 'कैसी है तुम्हारी पत्नी?' वह कहता, 'डाक्टर कहते हैं, एकदम ठीक; उसकी हालत सुधर रही है। नर्से कहती हैं, उसमें सुधार हो रहा है। तो जल्दी ही वह जरूर घर आ जाएगी।' फिर एक दिन वह अचानक चल बसी। तो मैंने पूछा उससे, 'क्या हुआ नसरुद्दीन?' उसने अपने कंधे उचकादिए और बोला, 'मैं समझता हूं वह उस तमाम सुधार को सहन नहीं कर सकी। बहुत ज्यादा था वह सब।'
हर कोई सुधार रहा है तुम्हें; माता-पिता, शिक्षक, पंडित-पुरोहित, समाज, सभ्यता। हर कोई सुधार रहा है, और कोई सह नहीं सकता उतना ज्यादा सुधार! और कुल परिणाम यह होता है कि तुम आदर्श व्यक्ति कभी नहीं हो पाते, बस तुम हो जाते हो स्वयं के निंदक। सर्वांग पूर्णता असंभव है। पूर्ण आदर्श कल्पनात्मक है। सर्वांग पूर्णता संभव ही नहीं; वह सैद्धांतिक होती है, स्वाभाविक नहीं। और हर किसी को बाध्य किया जा रहा है, उसे सुधारने को खींचा और धकेला जा रहा है हर दिशा से। हर कहीं से संदेश आता है कि जो कुछ भी तुम हो, तुम गलत हो-सुधारो। वह बात निर्मित करती है आत्मनिदा; तुम अस्वीकार कर देते हो स्वयं को, तुम सुयोग्य नहीं-बेकार हो, रही हो, अनाप-शनाप हो। यही रहता है मन में।
केवल प्रेम कभी कोशिश नहीं क
धारने की। वह तुम्हें स्वीकार करता है जैसे कि तुम होते हो। जब कोई तुम्हें प्रेम करता है, तो तुम बिलकुल सही होते हो, आदर्श होते हो जैसे कि तुम हो। और यदि प्रेमी भी एक दूसरे का सुधार करने की कोशिश कर रहे होते हैं तो वे प्रेमी नहीं। फिर से सारा वही खेल आ बनता है। प्रेम तुम्हें स्वीकार करता है जैसे कि तुम हो, और इस स्वीकृति द्वारा रूपांतरण घटित होता है। पहली बार तुम चैन अनुभव करते हो और तुम आराम पा सकते हो और यह बात अंततः प्रार्थना हो जाने वाली है।
केवल तभी जब कि तुम चैन अनुभव करते हो और विश्रांत होते हो, तो उदित होता है अनुग्रह। मात्र 'होने' का अनुग्रह बहुत सुंदर और आनंदमय होता है। प्रार्थना में तुम किसी चीज की मांग नहीं करते, तुम केवल अनुगृहीत होते हो। प्रार्थना है अनुग्रह का अर्पण; वह परमात्मा से कुछ मांगने जैसी बात नहीं। भिखारी वे लोग हैं जो प्रार्थना कभी नहीं कर सकते। प्रार्थना एक अनुग्रह का भाव है, एक गहन कृतज्ञता कि जो कुछ उसने दिया है वह बहुत ज्यादा है। वास्तव में तुम कभी उसे पाने के योग्य न थे। प्रेम द्वारा, सारा जीवन एक उपहार बन जाता है परमात्मा का, और तब तुम अनुभव करते हो धन्यभागी। और अनुग्रह के भाव से उदित होती है प्रार्थना की सुवास।
यह एक बहुत सूक्ष्म प्रक्रिया होती है. प्रेम द्वारा, तुम्हारी अपने प्रति तथा दूसरे के प्रति स्वीकृति; प्रेम की स्वीकृति द्वारा, एक रूपांतरण और एक दृष्टि कि कैसे भी हो जो भी तुम हो, तुम बिलकुल सही हो। और समग्रता स्वीकार करती है तुम्हें। फिर वहां रहता है अनुग्रह। तब उमग आती है प्रार्थना। वह शाब्दिक नहीं होती; संपूर्ण हृदय बस परिपूरित होता है अनुग्रह के भाव से। प्रार्थना कोई क्रिया नहीं है, प्रार्थना तो होने का एक ढंग है। जब वास्तव में ही प्रार्थना मौजूद होती है, तो तुम प्रार्थना नहीं कर रहे