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फिर पतंजलि कहते कि एक और समाधि है, 'निर्वितर्क', आनंद में डूबे मन की; कवि, चित्रकार, संगीतकार उपलब्ध करते हैं इसको। कवि सीधे-सीधे उतर जाता है विषय में, उसके इधर और उधर ही नहीं रहता, पर फिर भी विषय वहां होता है। वह शायद उसके बारे में सोच नहीं रहा होता, लेकिन उसका
न केंद्रित होता है उस पर। सिर क्रियान्वित नहीं रहा होगा, तो शायद हृदय ही क्रियान्वित होता होगा, पर फिर भी विषय तो मौजद होता है, दुसरा होता ही है वहां। एक कवि बहत गहन, आनंदमयी अवस्थाओं को उपलब्ध हो सकता है, लेकिन न तो वैज्ञानिक के लिए, न ही कवि के लि
न हा कवि के लिए पुनर्जन्म का चक्र समाप्त हो सकता है।
फिर पतंजलि पहुंच जाते हैं 'सविचार समाधि' तक; तर्क गिरा दिया गया, मात्र शुद्ध मनन रहता है। किसी के बारे में नहीं-केवल उसे देखना, उस पर ध्यान करना, उसके साक्षी बने रहना। ज्यादा गहरे आयाम खुलते हैं; तो भी विषय बना रहता, और तुम आविष्ट रहते विषय द्वारा ही। तुम अभी भी तुम्हारे अपने 'स्व' में नहीं होते-दूसरा होता है वहां। फिर पतंजलि आ पहुंचते निर्विचार तक।
निर्विचार में धीरे- धीरे विषय सूक्ष्म बन जाता है। यह सब से महत्वपूर्ण बात है समझ लेने की : निर्विचार में विषय ज्यादा और ज्यादा सूक्ष्म हो जाता है। स्थूल विषय-वस्तुओं से तुम सरकते हो सूक्ष्म विषय की ओर-चट्टान से फूल की ओर, फूल से सुवास की और । तुम सरकते हो सूक्ष्म की ओर। धीरे-धीरे एक घड़ी आती है, जब विषय बहुत सूक्ष्म हो जाता है। लगभग ऐसे ही जैसे कि वह हो ही नहीं।
उदाहरण के लिए. यदि तुम ध्यान-मनन करते हो शून्यता का, यदि विषय लगभग हो ही नहीं, तुम ध्यान करते हो ना-कुछ पर। ऐसी बौद्ध-पद्धतियां हैं जो जोर देती हैं केवल ध्यान पर, और जो है, 'नहीं-कुछ-होने' पर ध्यान करना। व्यक्ति को सोचना होता है, व्यक्ति को ध्यान करना होता है, व्यक्ति को यह धारणा आत्मसात करनी होती है कि कोई चीज अस्तित्व नहीं रखती। निरंतर 'नहींकुछ' पर ध्यान करते हुए, एक घड़ी आती है तब विषय इतना सूक्ष्म हो जाता है कि वह तुम्हारे ध्यान को पकड़ नहीं सकता, वह इतना सूक्ष्म होता जाता है कि चिंतन-मनन करने को कुछ बचता ही नहीं, और व्यक्ति इसी तरह चलता जाता है और चलता चला जाता है। अचानक, एक दिन चेतना स्वयं पर उछल जाती है। वहां विषय में कोई स्थायी जगह न पाकर, कोई आधार न पाकर, चेतना उछल पड़ती है स्वयं पर; वह लौट आती है, स्वयं अपने केंद्र पर वापस लौट आती है। तब वह उच्चतम, 'शुद्धतम, निर्विचार हो जाती है।
उच्चतम निर्विचार अवस्था तब होती है जब चेतना स्वयं पर ही उछल आती है। यदि तुम सोचने लगते हो, 'मैंने प्राप्त कर लिया अ-विचार को और मैंने पा लिया है नहीं-कुछ होने को', तो फिर तुमने निर्मित कर लिया होता है एक विषय और चेतना दूर सरक चुकी होती है। ऐसा बहुत बार घटता है खोजी को। अंत:रहस्यों को न जानते हुए, बहुत बार तुम छलांग लगा जाते हो स्वयं पर, कई बार तुम छू लेते हो अपने केंद्र को, और फिर तुम बाहर चले जाते हो। अकस्मात, विचार उदित होता