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सकते हो सुवास को? कोई भी उपेक्षा नहीं कर सकता है प्रेम की। और किसी को ऐसी कोशिश करनी नहीं चाहिए, क्योंकि फिर वहां विफलता ही प्रतीक्षा कर रही होती है और दूसरी कोई चीज नहीं।
तुम प्रेम को लेकर इतने निराश क्यों हो? वही समस्या आ बनेगी प्रार्थना में, क्योंकि प्रार्थना का मतलब है संपूर्ण के साथ, ब्रह्मांड के साथ प्रेम। इसलिए प्रेम की समस्या के ज्यादा गहरे में जाओ, और उसे सुलझा लो इससे पहले कि तुम प्रार्थना के बारे में सोचो। अन्यथा तुम्हारी प्रार्थना झूठी होगी। वह एक धोखा होगा। निस्संदेह तुम्हीं धोखा पाते हो, कोई दूसरा नहीं। वहां कोई ईश्वर नहीं तुम्हारी प्रार्थना सुनने को, जब तक कि तुम्हारी प्रार्थना प्रेम न हो, समष्टि बहरी बनी रहेगी। वह किसी दूसरे ढंग से खुल नहीं सकती-प्रेम ही है चाबी।
तो समस्या क्या है? क्यों कोई प्रेम को लेकर इतनी निराशा अनुभव करता है? बहुत ज्यादा अहंकार तुम्हें किसी से प्रेम न करने देगा। यदि तुम बहुत अहं-केंद्रित हो, बहुत स्वार्थी हो, स्वार्थ से ही जुड़े हो अहं-अभिभूत हो, तो प्रेम संभव न होगा, क्योंकि व्यक्ति को थोड़ा झुकना पड़ता है, और व्यक्ति को अपना दायरा थोड़ा छोड़ना पड़ता है, व्यक्ति को थोड़ा समर्पण करना पड़ता है प्रेम में। चाहे कितना ही थोड़ा हो, व्यक्ति को एक हिस्से का समर्पण करना ही पड़ता है। और किन्हीं निश्चित क्षणों में समर्पण करना होता है संपूर्ण रूप से।।
दूसरे को समर्पण करने की ही है समस्या। तुम चाहोगे दूसरा समर्पण कर दे तुम्हें, लेकिन दूसरा भी होता है उसी अवस्था में। जब दो अहंकार मिलते हैं तो वे चाहते हैं कि दूसरे को समर्पण करना चाहिए; और दोनों कोशिश कर रहे होते हैं एक ही बात की। प्रेम बन जाता है एक निराशा भरी चीज।
दूसरे को समर्पण के लिए विवश करने को प्रेम नहीं कहते हैं। वह तो घृणा होती है जो विवश करती है दूसरे को तुम्हारे प्रति समर्पण करने के क्योंकि दूसरे को तुम्हारे प्रति समर्पण करने के लिए
विवश करना दूसरे को नष्ट करना है। यही होता है घृणा का स्वभाव। यह एक प्रकार की हत्या हो जाती है। प्रेम है स्वयं का समर्पण दूसरे के प्रति। इसलिए नहीं करना क्योंकि तुम विवश किए गए हो समर्पण करने को, नहीं। यह एक ऐच्छिक चीज होती है; तुम बस आनंदित होते उससे। ऐसा नहीं कि तुम्हें विवश किया जाता है। कभी समर्पण मत करना उस किसी के प्रति जो कि तुम्हें विवश कर रहा हो समर्पण करने को, क्योंकि वह बात हो जाएगी आत्मघात। कभी समर्पण मत करना उस किसी के प्रति जो चालाकी से तुम्हारा इस्तेमाल कर रहा हो, क्योंकि वह होगी गुलामी, प्रेम नहीं। समर्पण करना अपने से, और गुणवत्ता तुरंत बदल जाती है।
जब तुम समर्पण करते हो अपने से, तो वह उपहार होता है; हृदय का उपहार। और जब तुम समर्पण करते हो अपने से, अपनी ही इच्छा से, तुम बस स्वयं को दे देते हो दूसरे को, तब कोई चीज पहली बार खुलती है तुम्हारे हृदय में। पहली बार तुम झलक पाते हो प्रेम की। तुमने केवल सुन –लिया है