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शब्द, तुम्हें पता नहीं कि उसका मतलब क्या है। प्रेम उन शब्दों में से है जिनका प्रयोग हर व्यक्ति करता है और जानता कोई नहीं कि उनका मतलब क्या है।
कुछ शब्द हैं, जैसे कि 'प्रार्थना', 'प्रेम', 'परमात्मा', ' ध्यान'| तुम प्रयोग कर सकते हो इन शब्दों का, लेकिन तुम जानते नहीं कि क्या होता है उनका अर्थ, क्योंकि उनका अर्थ शब्दकोश में नहीं होता है। वरना तो तुम सहायता ले लेते शब्दकोश की; वह बात कठिन नहीं। उनका अर्थ तो जीवन के एक खास ढंग में निहित रहता है। उनका अर्थ है तुम्हारे भीतर के एक सुनिश्चित रूपांतरण में। उनका अर्थ भाषागत नहीं है, उनका अर्थ अस्तित्वगत है। जब तक कि तुम अनुभव से नहीं जान लेते, तुम नहीं जानते-और कोई दूसरा रास्ता नहीं है जानने का।
तुम्हें समर्पण करना होता है अपने से बेशर्त, क्योंकि यदि कहीं कोई शर्त होती है तो वह एक सौदा होता है। यदि वहां यह शर्त भी हो कि 'मैं तुम्हें समर्पण कर दूंगा, यदि तुम समर्पण कर दो मेरे प्रति', तो भी, वह समर्पण नहीं होता है। वह कहला सकता है व्यापारिक सौदा, न कि समर्पण।
समर्पण बाजार की चीज नहीं। वह बिलकुल नहीं है अर्थशास्त्र का हिस्सा। समर्पण का अर्थ है बिना किसी शर्त के यह बात, 'मैं समर्पण करता हूं क्योंकि मैं आनंदित होता हूं मैं समर्पण करता हूं क्योंकि यह बहुत सुंदर है; मैं समर्पण करता हूं क्योंकि समर्पण करने में, अकस्मात मेरा दुख तिरोहित हो जाता है क्योंकि दुख अहंकार की प्रतिच्छाया है।' जब तुम समर्पण करते हो, अहंकार नहीं रहता। तो कैसे बना रह सकता है दुख? इसीलिए प्रेम इतना प्रसन्न होता है।
जब कभी कोई प्रेम में पड़ता है, अकस्मात ऐसा होता है जैसे कि बसंत खिल आया हो हृदय में। वे पक्षी जो मौन थे चहचहाने लगे, और तुमने कभी नहीं सुना था उन्हें। अचानक भीतर हर चीज खिल उठी और तुम भर जाते हो उस सुवास से जो इस धरती की नहीं होती है। प्रेम इस पृथ्वी की एकमात्र किरण होती है जो संबंध रखती है पार के सत्य से।
तो तुम नहीं टाल सकते प्रेम को और नहीं पहुंच सकते प्रार्थना तक, क्योंकि प्रेम है प्रार्थना का प्रारंभ। यह ऐसा है जैसे कि तुम पूछ रहे हो, 'क्या हम आरंभ से बच कर पहुंच सकते हैं अंत तक?' वैसा संभव नहीं। ऐसा कभी घटा नहीं और कभी घटेगा नहीं।
कौन-सी समस्या होती है प्रेम में न: पहली, तुम समर्पण नहीं कर सकते। यदि तुम प्रेम में समर्पण नहीं कर सकते, तो कैसे तुम समर्पण करोगे प्रार्थना में? क्योंकि प्रार्थना समग्र-समर्पण की मांग करती है। प्रेम तो इतना नहीं मांगता है। प्रेम समर्पण मांगता है, लेकिन आशिक समर्पण भी ठीक है। यदि तुम कभी-कभी कुछ-कुछ समर्पण भी करते हो, तो उन क्षणों में भी एक द्वार खुलता है और तुम्हें कुछ अलौकिक की झलक मिलती है। प्रेम बहुत समर्पण की मांग नहीं करता। और यदि तुम प्रेम की मांगों को पूरा नहीं कर सकते, तो कैसे तुम पूरा करोगे प्रार्थना की मांगों को? प्रार्थना नितांत रूप से समर्पण मांगती है। यदि तुम एक ही हिस्से का समर्पण करते हो तो वह तुम्हें स्वीकार नहीं करेगी।