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होता, तो 'नहीं लिख दिया गया होता है उनके चेहरों पर। गहन तल पर उन्होंने कहना शुरू कर दिया, 'नहीं, यह सच नहीं।'
अभी उस रात मैं बात करता था एक मित्र से। वह कुछ ही दिन पहले आया था; वह बहुत नया था। वह विश्वास करता था उपवास करने में, और मैं कह रहा था उससे, 'उपवास खतरनाक हो सकता है। तुम्हें अपने से ही नहीं चलना चाहिए; तुम्हें किसी विशेषज्ञ से पूछ लेना चाहिए। और यदि तुम मेरी सुनते हो, तो मैं उपवास के हक में बिलकुल नहीं हूं क्योंकि उपवास एक प्रकार का दमन है। शरीर सत्य है। शरीर की भूख सत्य है, शरीर की जरूरत ही सच्ची होती है। बहुत ज्यादा मत खाओ, क्योंकि वह भी शरीर के विरुद्ध है और एक प्रकार का दमन है। और उपवास मत करो, क्योंकि वह भी असत्य है और वह भी दमनात्मक है। वह भी स्वभाव के साथ मेल नहीं खाता है। इसीलिए मैं इसे
कहता हूं असत्य।'
कोई भोजन करते जाने की बात से वशीभूत होता है-पागल है वह, और कोई वशीभूत होता है भोजन न करने की बात से-वह भी पागल होता है। दोनों अपने शरीरों को नष्ट कर रहे होते हैं-वे शत्र हैंऔर उपवास का प्रयोग किया जाता रहा है एक चालाकी की भांति।
जब कभी तुम उपवास करते हो, तुम्हारी ऊर्जा क्षीण हो जाती है। वह दुर्बल हो ही जाती है। क्योंकि इसके निरंतर बहने के लिए भोजन की आवश्यकता होती है। उपवास करने के तीन-चार दिन बाद, तुम्हारी ऊर्जा इतनी क्षीण हो जाती है कि मन इसमें से अपना नियतांश नहीं ले पाता है, क्योंकि मन एक ऐश्वर्य है। जब शरीर के पास बहुत ज्यादा होता है, तब वह मन को दे देता है। मन बाद की चीज है, संसार में बहुत बाद में पहुंची चीज है। शरीर मूलभूत और प्राथमिक है। पहले शारीरिक आवश्यकताएं परिपूर्ण होनी चाहिए, और केवल इसके बाद ही आती हैं मन की आवश्यकताएं।
यह ऐसा है जैसे कि जब तुम भूखे होते हो, तुम नगर के दार्शनिक को बरदाश्त नहीं कर सकते। जब तुम भूखे होते हो तो दार्शनिक को वहां से सरकना ही होता है। वह नहीं रह सकता है वहां। दार्शनिकता तभी आती है जब समाज धनवान होता है, समृद्ध होता है। धर्म तभी आता है जब समाज समृद्ध हो, जब मूलभूत आवश्यकताएं परिपूर्ण हों। और यही व्यवस्था होती है शरीर की : पहले तो शरीर, फिर दूसरा है मन। यदि शरीर मुसीबत में होता है और अपना आवश्यक नियताश नहीं पा रहा होता है, तब मन का ऊर्जा-नियतांश तरंत कम हो जाएगा।
और यही है चालाकी जिसे चलाते रहे हैं लोग अपने शरीरों के साथ : जब मन के लिए ऊर्जा-अंश में कटौती हो जाती है, तो मन नहीं सोच सकता क्योंकि सोच-विचार को आवश्यकता होती है ऊर्जा की।
और लोग सोचते हैं कि वे ध्यानी बन गए हैं, क्योंकि मन के पास विचार रहे नहीं। यह सच नहीं होता। उन्हें भोजन दे दो और विचार वापस लौट आएंगे। जब ऊर्जा नहीं बह रही होती, तो मन हो जाता है ग्रीष्म के नदी - तल की भांति-नदी बह नहीं रही है, लेकिन किनारे हैं वहां, हर चीज तैयार