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फूल की ही सोचता है, उसके बारे में नहीं। तार्किक चलता है, चक्कर - दर - चक्कर में।
एक कवि सीधे तौर पर चलता है और साक्षात्कार करता है फूल के पूरे सत्य को ही एक कवि के लिए, एक गुलाब तो गुलाब ही होता है तेरे में घिरा विषय नहीं होता। वह सरकता है भीतर की और - फूल में अब स्मृति साथ ही भीतर नहीं लायी जाती है। मन एक ओर रख दिया जाता है; वहां होता है एक सीधा संपर्क ।
यह उसी घटना की उच्चतर अवस्था है। गुणवत्ता परिष्कृत हो चुकी है तो भी घटना वही है।
इसीलिए पतंजलि कहते हैं, 'सवितर्क और निर्वितर्क समाधि का जो स्पष्टीकरण है, उसी से समाधि की उच्चतर स्थितियां भी स्पष्ट होती हैं। लेकिन सविचार और निर्विचार समाधि की उच्चतर अवस्थाओं में ध्यान के विषय अधिक सूक्ष्म 'होते हैं।'
कवि होता है सविचार में, और कोई भी जो सविचार में प्रवेश करता है कवि हो जाता है वह फूल की सोचता है, उसके बारे में नहीं सोचता। वह प्रत्यक्ष होता है और तात्कालिक होता है, लेकिन अब भी भेद होता है वहां। कवि फूल से अलग रहता है। कवि होता है व्यक्ति और फूल होता है विषय | द्वैत अस्तित्व रखता है। द्वैत को पार नहीं किया गया है कवि फूल नहीं बना है, फूल कवि नहीं बना है। द्रष्टा है द्रष्टा ही, और दृश्य अभी भी दृश्य है। द्रष्टा नहीं बना है दृश्य, दृश्य नहीं बना है द्रष्टा । द्वैत अस्तित्व रखता है।
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सविचार समाधि में तर्क गिराया जा चुका होता है पर द्वैत नहीं। निर्विचार समाधि में द्वैत भी गिर जाता है। व्यक्ति बस देखता है फूल को, न स्वयं की सोचते हुए और न फूल की सोचते हुए बिलकुल ही कुछ न सोचते हुए। वह है निर्विचार बिना सोच-विचार के, चिंतन-मनन के पार । व्यक्ति होता भर है फूल के साथ नहीं सोच रहा होता है उसके बारे में वह न तो होता है तार्किक की भांति और न ही होता है कवि की भांति ।
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अब आता है रहस्यवादी संत, जो कि बस होता है फूल के साथ। तुम नहीं कह सकते कि वह उसके बारे में सोचता है, या कि वह सोचता है। नहीं, वह मात्र उसके साथ होता है और वहां होने देता है स्वयं को। उस होने देने की घड़ी में, अकस्मात वहां चली आती है एकमयता। फूल फूल नहीं रह जाता, . और द्रष्टा एक द्रष्टा नहीं रहता। अकस्मात, ऊर्जाएं मिलतीं और घुलमिल जातीं और एक हो जाती हैं। अब द्वैत का अतिक्रमण हो गया। संत नहीं जानता फूल कौन है और कौन देख रहा है उसे यदि तुम पूछो संत से, रहस्यवादी से, तो वह कहेगा, 'मैं नहीं जानता। हो सकता है वह फूल ही हो जो कि देख रहा हो मुझे। हो सकता है वह मैं ही हूं जो देख रहा हूं फूल को बात परिवर्तनशील है।' वह कहेगा, 'निर्भर करता है और कई बार, वहां न तो मैं होता हूं और न ही फूल। दोनों मिट जाते हैं। एकमयी