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पतंजलि ने कहा, 'मार्ग है; विधियां हैं।' और वे वास्तव में बहुत ही बुद्धिमान हैं। बाद में, अंत में वे तुम्हें राजी कर लेंगे विधि को गिरा देने के लिए और मार्ग को गिरा देने के लिए। न मार्ग है, न विधि; कुछ नहीं है; लेकिन केवल अंत पर।
उस वास्तविक शिखर पर जब कि तुम बिलकुल पहुंच चुके होते हो, जब पतंजलि भी तुम्हें छोड़ देते हैं, तो वहां कोई अड़चन नहीं होती। तुम पहुंचोगे अपने से ही। अंतिम घड़ी में वे बन जाते हैं निरर्थक। अन्यथा, वे होते हैं युक्तियुक्त। और वे बने रहे हैं इतने युक्तियुक्त सारे मार्ग पर कि जब वे बन जाते हैं निरर्थक, तो भी वे आकर्षित करते हैं, तो भी । उचित जान पड़ते हैं। क्योंकि पतंजलि जैसा आदमी नासमझी की बात कह नहीं सकता है। वे विश्वसनीय हैं।
सवितर्क और निर्वितर्क समाधि का जो स्पष्टीकरण है उसी से समाधि की उच्चतर स्थितियां भी स्पष्ट होती हैं लेकिन सविचार और निर्विचार समाधि की उच्चतर अवस्थाओं में ध्यान के विषय अधिक सूक्ष्म होते हैं।
बाद में, ध्यान के विषय को बना देना होता है ज्यादा और ज्यादा सूक्ष्म। उदाहरण के लिए तुम ध्यान कर सकते हो चट्टान पर, या कि तुम ध्यान कर सकते हो फूल पर, या तुम ध्यान कर सकते हो ध्यानी पर। और तब चीजें ज्यादा और ज्यादा सूक्ष्म होती जाती हैं। उदाहरण के लिए, तुम ध्यान कर सकते हो ओम की ध्वनि पर। पहला ध्यान है इसे जोर से कहने का, जिससे कि वह प्रतिध्वनित हो सके तुम्हारे चारों ओर। वह तुम्हारे चारों ओर एक ध्वनि-मंदिर बन जाए। ओम, ओम, ओम! तुम अपने चारों ओर निर्मित करते हो प्रदोलित तरंगें-अपरिष्कृत; पहला चरण। फिर तुम बंद कर लेते हो तुम्हारा मुंह। अब तुम इसे जोर-जोर से नहीं कहते। भीतर तुम कहते हो, 'ओम, ओम, ओम।' होंठों को नहीं हिलने देना, जीभ को भी नहीं हिलाना। बिना जीभ और बिना होंठों के तुम कहते हो, 'ओम'। अब तुम निर्मित कर लेते हो एक आंतरिक वातावरण, एक अंतर्जलवायु ओम की। विषय सूक्ष्म हो गया है। फिर है तीसरा चरण : तम उसका पाठ भी नहीं करते, तम मात्र सनते हो उसे। तम बदल देते हो स्थिति कर्ता की, तुम सरक जाते हो सुनने वाले की निश्चेष्टता की ओर। तीसरी अवस्था में तुम भीतर भी नहीं उच्चारित करते, 'ओम'। तुम बस बैठ जाते हो और तुम सुनते हो उस ध्वनि को, नाद को। वह पहुंचता है क्योंकि वह वहां होता है। तुम मौन नहीं हो, इसीलिए तुम सुन नहीं सकते उसे।
'ओम' किसी मानवी भाषा का शब्द नहीं। उसका कोई अर्थ नहीं है। इसीलिए हिंदू इसे सामान्य वर्णमाला में नहीं लिखते। नहीं, उन्होंने एक अलग रूपाकार बना लिया है इसके लिए, मात्र भेद बतलाने को ही कि वह वर्णमाला का हिस्सा नहीं है। वह अलग से, अपने से ही अस्तित्व रखता है, और उसका कोई अर्थ नहीं है। यह मानवी भाषा का शब्द नहीं। यह स्वयं अस्तित्व का ही नाद है। निःशब्द का