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अर्थ-सङ्कलना
अङ्गार-कर्म, वन-कर्म, शकट-कर्म, भाटक-कर्म, स्फोटककर्म, दन्त-वाणिज्य, लाक्षा-वाणिज्य, रस-वाणिज्य, केश-वाणिज्य, विष-वाणिज्य, यन्त्र-पीलन-कर्म, निर्लाञ्छन-कर्म, दव-दान-कर्म, जल-शोषण-कर्म और असती-पोषण-कर्म छोड़ देता हूँ॥२२-२३।। मल
सत्थग्गि-मुसल-जंतग-तण-कढे मंत-मूल-भेसज्जे । दिन्ने दवाविए वा, पडिक्कमे देसि सव्वं ॥ २४ ॥ शब्दार्थसत्थग्गि - मुसल-जंतग-तण- । मंत-मूल-भेसज्जे-मन्त्र, मूल
___ और ओषधिके विषयमें। कट्टे-शस्त्र, अग्नि, मूसल,
दिन्ने दवाविए वा-दूसरोंको चक्की ( पेषणी ) आदि यन्त्र,
देते हुए और दिलाते हुए । तृण और काष्ठके विषयमें। पडिक्कमे देसि सव्वं-पूर्ववत्० अर्थ-सङ्कलना__शस्त्र, अग्नि, मूसल आदि साधन, चक्की (पेषणी) आदि यन्त्र, विभिन्न प्रकारके तृण, काष्ठ, मूल और ओषधि आदि (विना कारण) दूसरोंको देते हुए और दिलाते हुए ( सेवित अनर्थदण्डसे ) दिवससम्बन्धी छोटे-बड़े जो अतिचार लगे हों, उन सबसे मैं निवृत्त होता हूँ ॥ २४॥
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पहाणव्वट्टण-वन्नग-विलेवणे सद्द-रूव--रस--गंधे । वत्थासण--आभरणे, पडिक्कमे देसि सव्वं ॥ २५ ॥
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