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पूर्वधरके रूपमें ये अन्तिम माने जाते हैं । शासन-- सेवा के अनेक कार्य कर अनशन--पूर्वक कालधर्मको प्राप्त हुए ।
१२ नन्दिषेण : - इस नाम से दो महापुरुषोंके चरित्र प्राप्त होते हैं, एक तो अद्भुत वैयावृत्त्य करनेवाले नन्दिषेण; कि जिनको देवता भी डिगा नहीं सके और दूसरे श्रेणिक राजाके पुत्र नन्दिषेण कि जिन्होंने प्रभु महावीरकी देशनासे प्रतिबोध प्राप्त करके दीक्षा ली थी । उग्र तपश्चर्याके कारण इनको कुछ लब्धियाँ प्राप्त हुई थीं । ये एक बार गोचरीके प्रसङ्गसे एक वेश्याके यहाँ चले गये और 'धर्मलाभ' कहकर खड़े रहे । वेश्या बोली : - 'हे मुनिराज ! तुम्हारे धर्मलाभको मैं क्या करूँ ? यहाँ तो द्रव्य लाभको आवश्यकता है !' यह सुनकर मुनिने एक तिनका खींचा जिससे लगातार सुवर्णकी वृष्टि हुई। यह देखकर वेश्या बोली - हे प्रभो ! मूल्य देकर ऐसे ही नहीं जाया जाता । मुझपर दया करो ! आप चले जायँगे तो मेरे मरणसे आपको स्त्रीहत्या लगेगी, आदि ।' मुनि धर्मका उल्लङ्घन करके भी वेश्याके यहाँ रहे, किन्तु इस बार ऐसा अभिग्रह किया कि प्रतिदिन दस पुरुषों को उपदेश देकर, धर्म में श्रद्धायुक्त बनाकर प्रभुके निकट भेजना । बारह वर्ष तो इस प्रकार व्यतीत हुए; किन्तु एक दिन ऐसा आया कि दसवाँ व्यक्ति समझा नहीं । नन्दिषेणने बहुत परिश्रम किया किन्तु वह सब व्यर्थ गया । तब वेश्याने विनोद करते हुए कहा कि 'स्वामिन् दसवें आप।' इसी समय मोहनिद्रा टूट जाने से नन्दिषेणने पुनः दीक्षा ग्रहण की और आत्मकल्याण किया ।
१३ सिंहगिरि : - ये प्रभु महावीरके बारहवें पट्टपर विराजने वाले प्रभावशाली आचार्य थे और श्रीवज्रस्वामीके गुरु थे ।
१४ कृतपुण्यक ( कयवन्ना सेठ ) : - ये पूर्वजन्म में मुनिको दान देनेसे राजगृही नगरीमें धनेश्वर नामक श्रेष्ठिके यहाँ पुत्ररूपमें अवतरित हुए। फिर अनुक्रमसे इन्होंने श्रेणिक राजाका आधा राज्य प्राप्त किया तथा उनकी पुत्री मनोरमाके स्वामी बने । संसारके अनेक भोग भोगनेके पश्चात्
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