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घोड़े, चौरासी लाख हाथी, चौरासी लाख रथ और छियानबे करोड़ गाँवों के अधिपति बने थे, तथा जो मूर्तिमान् उपशम जैसे, शान्ति • करनेवाले, सर्वभयोंसे अच्छी तरह तिरे हुए और रागादि शत्रुओंको जीतनेवाले थे, उन श्रीशान्तिनाथ भगवान्की मैं शान्तिके निमित्त स्तुति करता हूँ ।। ११-१२ ।।
मूल
( मुक्तकद्वारा श्री अजितनाथ की स्तुति ) इक्खाग ! विदेह ! नरीसर ! नर-वसहा ! मुणि-वसहा !, नव - सारय-ससि - सकलाणण ! विगय-तमा ! विहुय - रया । अजि ! उत्तम - तेअ ! [गुणेहिं] महामुणि ! अमिय बला ! विउल-कुला !,
पणमामि ते भव-भय-मूरण ! जग-सरणा ! मम सरणं ॥ १३ ॥
- चित्तलेहा ॥
शब्दार्थ
इक्खाग ! - हे इक्ष्वाकुकुलमें उत्पन्न होनेवाले !
विदेह ! - हे विशिष्ट देहवाले । नरीसर ! - हे नरेश्वर !
नर-वसहा- हे नर-श्रेष्ठ !
वसह श्रेष्ठ |
मुणि-वसहा ! हे मुनि श्रेष्ठ !
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ससि - सकलाणण ! - हे शरदऋतु के नवीन
चन्द्र जैसे कलापूर्ण मुखवाले । सारय- शरद् ऋतुका । ससि
चन्द्र । सकल - पूर्ण, कलापूर्ण | आणण-मुख |
विगय-तमा ! - हे अज्ञान - रहित !
नव-सारय
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